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प्राचीन साहित्य में धवल ( = उत्तम जाति का बैल) को खानदानी स्वामीभक्त सेवक के प्रतीक के रूप में अन्योक्ति में प्रयुक्त करने की परंपरा थी।
341 (1). मेल्छ- देशज है। गुजराती में सौराष्ट्र में मेलव 'रखना' । माणुसह में संस्कृत चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी है । रण- में अरण्य-का आद्य स्वर लुप्त हो गया है। विशेष के लिये देखिये सू. 368 विषयक टिप्पणी । रण्ण-रन्न पर से रान । रन और रण- का सम्बन्ध जोड़ने में ध्वनि की दृष्टि से कठिनाई है । मूल शब्द कदाचित् सं. इरिण 'निर्जल प्रदेश' हो ।
(2). परिहणु सीधे ही परिधान- पर से नहीं आया है । परि +धा पर से धातु परिह-'पहनना' और उस पर से संज्ञा परिहण-'पहिरन' (गुज. पहेरण). । अग्गलय- संस्कृत अग्र, प्रा. अग्ग- को -ळ- तथा -य-(<-क-) प्रत्यय लाने पर हुआ है। हिं. अगला, गुज. आगळ इस अग्गल- से बना है । यहाँ विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । पुरानी गुजराती का कवि शामल भट्ट की एक रचना में गुण-आगलो 'गुण से अधकि, बढ़कर' एसा प्रयोग पाया जाता है । अपभ्रंश में प्रकारभेद से ऋ और संयुक्त र सुरक्षित रहते हैं । देखिये भूमिका में 'व्याकरण की रूपरेखा' तथा सूत्र 398।
(3). मूल पद्य की एक ही पंक्ति दी गयी है इसलिये अर्थ अधूरा लगता है। छन्द पद्धड़ी।
नाप : 4+4+ 2 + --- = 16 मात्रा ।
343 (1). अग्गिएं में एं हस्व-एक मात्रा का है। वाएं में दो मात्राओं का हैं । पूर्वार्ध में उण्हउँ है, और उत्तराध में सीअला (एकवचन) है । तुलना कीजिये 330 (2) में गरुआ और जुत्तउ । उण्हत्तणु : त्तण प्रत्यय के लिये देखिये सूत्र .437 ।
(2). विप्पिय 'अपराध' । छन्द की खातिर त का त। 340 (2) में कि तथा 388 (1) में करतु की तुलना कीजिये । यहाँ भी पूर्वाध में °आरउ और उत्तरार्ध में दड्ढा है । तुलना कीजिये ऊरर (1) तथा 340 (2). 344 से 347 तक सूत्र संज्ञा के सर्वसामान्य रूपाख्यान विषयक हैं । विप्पियगारी पुष्पदन्त के “महापुराण' (93 संधि में) प्रयुक्त हुआ है ।
344 हेमचन्द्र के प्रतिपादन अनुसार घोडा में जो 'आ'- कार है वह प्रत्यय नहीं है परंतु सूत्र 330 के अनुसार सिद्ध हुआ है यह याद रक्खा जाये।
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