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330. इस सूत्र से अपभ्रंश रूपाख्यान की विशिष्टताओं का निरूपण प्रारंभ होता है । पहले नामिक रूपाख्यान लिया है। इसके निरूपणक्रम में 330 से 335 तक के सूत्रों में विभक्ति प्रत्यय लगने पर नामिक अंग के अत्य स्वर में क्या क्या परिवर्तन होते हैं ये बताया है तथा बाद के सूत्रों में संस्कृत विभक्ति प्रत्ययों का अपभ्रंश में कैसा रूपांतर होता है यह बताया है ।
किसे केवल अंग में हुआ परिवर्तन माने और किसे विभक्ति प्रत्यय ? इसके बारे में हेमचन्द्र के दृष्टिकोण की चर्चा के लिये देखिये सूत्र 331 विषयक टिप्पणी ।
पिछले सूत्र में दिये गये नियम को तरह प्रस्तुत सूत्र में दिया गया नियम भी स्थूल स्वरूप का है । उदाहरणों में अकारांत पुल्लिंग के प्रथमा, द्वितीया और संबोधन एकवचन में ढोल्ला, सामला (वारिआ, दीहा) में और उसके प्रथमा बहुवचन में घोडा और निसिआ में नाम के अंत्य हम्व स्वर (अ) का दीर्घ (आ) होता बताया है, जबकि उसी प्रकार अकारांत स्त्रीलिंग प्रथमा, द्वितीया और संबोधन एकवचन में भणिअ, पुत्ति, भल्लि और पइट ठि (रेह, वग्ग) में दीर्घ (आ, ई) का हृस्व (अ, इ) हुआ है | आगे 344 वें सूत्र के अनुसार अपभ्रंश में प्रथमा (संबोधन) और द्वितीया के प्रत्यथ लुप्त हो जाते हैं-इन विभक्तिओं में कोई प्रत्यय लगता नहीं हैं, यह ध्यान में रखना है । मूल में तो अकारांत पुल्लिंग रूपो में अंग के अंत में कई बार अ के स्थान पर आ होता है वह स्वार्थिक क प्रत्यय द्वारा हुए अंगविस्तार का ही परिणाम है । श्यामल पर से सामल होता है और क प्रत्यय लगने पर श्यामलक पर से सामलअ द्वारा सामला होता है ।
__ स्त्रीलिंग अंगों में अंत्य स्वर हस्व होता है, यह अपभ्रंश की महत्त्वपूर्ण विलक्षणता है। सूत्र 329 विषयक टिप्पणी में कहा गया है उसके अनुसार अपभ्रंशम में अंत्य स्वर के ह्रस्व उच्चारण का विशेष झुकाव है । इस प्रकार दीर्घ का हस्व
और ह्रस्व का दीर्घ होता है उसके मूल में कुछ निश्चित नियम रहे हुए हैं और वे नितांत भिन्न भिन्न प्रक्रिया के कारण हैं ।
सामला, वारिआ, दीहा आदि के द्वारा हेमचन्द्रीय अपभ्रंश का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रकट होता है । श्यामलक पर से प्रथमा एकवचन में जिस प्रकार सामला होता है उसी प्रकार सामलउ भी होता है । कालान्तर में "सामला जैसे आकारांत रूप खड़ी बोली जैसी हिन्दी बोलिओं में (जैसे कि घोडा, लडका)
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