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हैं वह ढंग ही आपत्तिजनक हैं । भिन्न वृत्तियों और व्यापारों द्वारा सिद्ध परिवर्तनों की उपर्युक्त उदाहरण में मिलावट ही कर दी गयी है। ऋ का अ, इ, उ और ऋ, लू का इ, इलि, ए का ई, इ, ई का ए, औ का अउ, ओ, और आ, ई का अ, इ ये परिवर्तन क्रमिक ध्वनिविकास का परिणाम है जबकि बाह का बाहा, बाह; पृष्ठम् के इकारांत पटिठ, पिटिठ पुटि ठ और कच्चित् का कच्चु, कच्च ये परिवर्तन सादृश्यमूलक है । क्रमिक ध्वनिपरिवर्तनों में भी शब्दारंभ में स्थित ऋ> रि, ओष्ठ्य व्यंजनों के बाद ऋ > उ, इतर व्यंजनों के बाद बोली-भेद में ऋ> इ या ऋ> अ और अपभ्रंश के एक प्रकार में ऋ अविकृत (केवल लिखने में ही-उसका उच्चारण तो हि सा था); औ का बोली-भेट अथवा समयभेद पर अउ और ओ; ल का सारून्य द्वारा इ और विश्लेष द्वारा इलि, प्राकृत भूमिका के अंत्य दीर्घ स्वर अपभ्रंश में हस्व बनने पर, बाहा का बाह; गौरी का गरि या गोरि; भूमिकामेद पर वीण और वेण, तथा लेह, लीह और लिह; इस प्रकार बोली-भेद या प्रक्रिया-भेद के आधार पर क्रोमेक ध्वनिप्ररिवर्तन ठीक से समझे जा सकते हैं। सादृश्यमूलक परिवर्तन में पुल्लिंग बाहु और नपुसकलिंग पृष्ठम् अन्य किसी अंगों के सादृश्य पर स्त्रीलिंग बनने पर उनका अंत्य स्वर स्त्रीलिंग अंगों के अनुरूप बनता है । कच्चित् का कच्चि के स्थान पर कच्चु, कच्च होता है वह अन्य उकारांत और अकारांत अव्यय के सादृश्य पर होता है यह अनुमान किया जा सकता है । तुलनीय विना > विणु, अद्य > अज्जु, सह > सहुँ, जेत्थु, तेत्थु आदि, अनु तथा पर, अवस, जेम, तेम आदि, जिह, तिह इत्यादि ।
पहले की आवृत्तियों और पाण्डुलिपियों में काच्च ऐसा पाठ है, परंतु प्राकृत उच्चारण के अनुसार वह असंभव है । प्राकृत में संयुक्त व्यंजन पूर्व का दीर्घ स्वर निरपवाद रूप से ह्रस्व होता है । इसलिये कच्च ऐसा पाठ रखा है । मूलतः कव्वु, कावु = काव्यम् होने की शंका रहती है । पाण्डुलिपि में च और व का भ्रम सहज है । प्राचीन टीका में तथा उसके अनुसरण में पीशेल और वैद्य वेण, वीण की प्रकृति के रूप मे संस्कृत वेणी देते हैं । इसके समर्थन में ईकरांत स्त्रीलिंग अकारांत बन जाने का कोई उदाहरण दिया नहीं जा सकता । अतः यहाँ मूल शब्द के रूप में वीणा शब्द का स्वीकार किया गया है। वैद्य किन्नड, किलिन्नउ के मूल के रूप में क्लिन्न देते हैं जो ठीक नहीं है। 8/1/145 में हेमचन्द्र द्वारा दिया गया क्लन्न स्वीकार करें तभी वह स्वराणाम् स्वराः का उदाहरण बन सकता है । तणु, तिणु, तृण को तरह सुकिदु, सुकदु (या सुकउ), सुकृदु की अपेक्षा रहती है ।
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