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________________ ११७ संकट अनुभव होता वहाँ कवि कई बार अंत्यलघु अपभ्रंश रूप के स्थान पर अंत्यगुरु प्राकृत रूप का उपयोग कर छंद बचा लेता । अपभ्रंश के स्थान पर कभी कभी प्राकृत प्रयोग का यही रहस्य है। यहाँ पर जिस प्रकार शौरसेनी के प्रभाव का उल्लेख है उसी प्रकार अपभ्रंश विभाग के अंतिम ( = 446 वे) सूत्र में भी अपभ्रंश में कई बार होती शौरसेनी जैसी प्रक्रिया की बात कही है। इसकी स्पष्टता के लिये सूत्र 396 विषयक टिप्पणी देखिये । उाहरणों में स्वर-परिवर्तन इस प्रकार है : V V V poran V V इ>उ, अ : कश्चित् > कच्चु, कच्च । आ>अ : वीणा>वीण,> वेण; लेखा>लेह, लोह, लिह । ई>ए : वीणा>वेण । उ>आ या अ : बाहु > बाहा, बाह । . : पृठष्म> पट्ठि; तृणम् > तणु । : पृष्ठम् >पिट्ठि, तृणम्>तिणु । सुकृतम्> सुकिदु । : पृष्ठम् > पुठि । : पृष्ठम्>पछि, पिठि, पुठि । : क्लन्नकः>किन्नउ । ल>इलि : क्लन्नकः>किलिन्नउ । : लेखा>लीह : लेखा>लिह । औ>ओ : गौरी >गोरि । औ>अउ : गौरी >गउरि । ई>इ : गौरी> गोरि, गउरि । भाषा में होते परिवर्तन नियमबद्ध किये जा सके उतने ज्यवस्थि होते हैं, जबकि उपर्युक्त परिवर्तन यह संदेह उत्पन्न करते हैं कि क्या अपभ्रंश में नितांत अतंत्रता, अव्यवस्था प्रवर्तमान थी ? वास्तव में तो ये परिवर्तन जिस ढंग से प्रस्तुत लिये गये x x Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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