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________________ (ix) प्रकाशित हुए हैं, उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है धनपाल कृत 'भविसयत्तकह' (भविष्यदत्तकथा) । धनपाल दिगंबर धर्कट वणिक था और उसका समय संभवतः ईसाकी बारहवीं शताब्दी से पहले का है । बाईस तंधियों में वर्णित यह काव्य कुछ-कुछ सरल शैली में भविष्यदत्त की कौतुकपूर्ण कथा कहता है और साथ ही साथ कार्तिक माह की शुक्ल पंचमी के दिन श्रुतपंचमी का व्रत करने से प्राप्त होते फल का उदाहरण देने का लक्ष्य सिद्ध करता है । इसका कथानक इस प्रकार है : एक व्यापारी अकारण अरुचि होने पर पुत्र भविष्यदत्त सहित अपनी पत्नी का त्याग करता है और दूसरा विवाह करता है । बड़ा होने पर भविष्यदत्त किसी प्रसंगवश परदेश जाता है तब उसका सौतेला छोटा भाई उसे धोखा देकर किसी एक निर्जन द्वीप पर अकेला छोड़ जाता है। परंतु माता ने श्रुतपंचमी का व्रत किया था इसलिये भविष्यदत्त की सारी कठिनाईयाँ दूर होती हैं, और उसका उदय होता है । शत्रु को पराजित करने में राजा की मदद करने के बदले में वह राज्याध का अधिकारी बनता है । मृत्यु के बाद चौथे जन्म में श्रुतपंचमी का व्रत करने से उसे केवलज्ञान प्राप्त होता है । धनपाल के पहले इसी विषय पर अपभ्रंश में त्रिभुवन का 'पंचमिचरिय तथा प्राकृत में महेश्वर का 'नाणपंचमीकहाओ' (सं. ज्ञानपंचमीकथाः) काव्य मिलता है । धनपाल के निकटवर्ती समय में श्रीधर ने चार संधियों में अपभ्रंश 'भविसत्तचरिय' की (सं. भविष्यदत्तचरित) ई. सन् 1174 में रचना की है जो अभी तक अप्रसिद्ध है। कनकामर का 'करकंडचरिय' (सं. करकण्डुचरित) दस संधियों में एक प्रत्येकबुद्ध (अर्थात् स्वयंप्रबुद्ध संत) का जीवनवृत्तांत प्रस्तुत करता है । बौद्ध साहित्य में भी करकंडु का संदर्भ मिलता है । पाहिल कृत 'पउमसिरिचरिय' (सं. पद्मश्रीचरित) (ईसा की 11 वीं शताब्दी के आसपास) कपटभाव युक्त आचरण के बूरे फल का दृष्टांत देने के लिये चार संधियों में पद्मश्री के तीन जन्म का वृत्तांत प्रस्तुत करता है । कथावस्तु हरिभद्र की प्रसिद्ध प्राकृत कथा 'समराइच्चकहा' की एक गौणकथा से लिया है । परंतु जैसा कि पहले कहा है वैसे संधिबद्ध चरितकाव्यों में से अभी तक ज्यादातर रचनाओं को मुद्रण का सद्भाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। यहाँ हम ऐसे कामों की एक सूचि वह भी पूर्ण नहीं दे कर ही संतोष मान सकते हैं। प्रायः ये काव्य किसी जैन सिद्धांत या धार्मिक-नैतिक मत के दृष्टांत को प्रस्तुत करने के लिये किसी तीर्थकर या जैन पुराणकथा, जनश्रुति या इतिहास के किसी यशस्वी पात्र का चरितचित्रण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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