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(viii)
चरितकाव्य
पुष्पदंत के अन्य दो काव्य 'णायकुमास्वरिय ' (सं. नागकुमारचरित) और जसहरचरिय' (सं. यशोधरचरित) पर से पता चलता है कि विशाल पौराणिक विषयों के अलावा जैन पुराण, अनुश्रुति या परंपरागत इतिहास के प्रसिद्ध व्यक्तियों के बोधदायक जीवनचरित प्रस्तुत करने के लिये भी संन्धि का प्रयोग होता था । विस्तार और निरूपण की दृष्टि से ये चरितकाव्य या कथाकाव्य संस्कृत महाकाव्यों की प्रतिकृति से लगते हैं इनमें भी पुष्पदंत के सामाने कुछ पूर्व उदाहरण होंगे । यों ही से उल्लेख पर से हमें पुष्पदंत से पहले के कम से कम दो चरितकाव्यों के नाम का पता चलता है - एक स्वयंभू कृत 'सुद्दयचरिय' और दूसरा उसके पुत्र त्रिभुवनकृत 'पंचमीचरिय' | 'णायकुमारचरिय' नव संघियो में नायक नागकुमार (जैन पुराणकथा अनुसार चौबीस कामदेव में से एक) के पराक्रम का वर्णन करता है और साथ ही साथ वह फागुन की शुक्ल पंचमी के दिन श्रीपंचमी का व्रत करने से होती फलप्राप्ति का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है ।
पुष्पदंत का तीसरा काव्य 'जसहरचरिय' चार संधियों में उज्जयिनी के राजा यशोधर की कथा प्रस्तुत करता है और इस कथा के द्वारा प्राणिवध के पापों के कटु फल का दृष्टांत देता है । पुष्पदंत के पहले और बाद इसी कथानक पर आधारित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं में मिलती रचनायें इस बात की द्योतक है कि यह विषय जैनों में बड़ा लोकप्रिय रहा है ।
पुष्पदंत का प्रशिष्ट काव्यरीति पर प्रभुत्व, अपभ्रंश भाषा में अनन्य निपुणता तथा बहुमुखी पांडित्य उसे भारत के कवियों में महत्वपूर्ण पद प्रदान करते हैं । एक स्थान पर अपने काव्यविषयक आदर्श का हल्का-सा संकेत करते हुए वह कहता है कि उत्तम काव्य शब्द और अर्थ के अलंकार से तथा लीलायुक्त पदावलि से मंडित, रसभावनिरंतर, अर्थ की चारुता से मंडित, सर्व विद्याकला से समृद्ध, व्याकरण और छन्द से पुष्ट और आगम से प्रेरित होना चाहिये । उच्च कोटिका अपभ्रंश साहित्य इस आदर्श को साकार करने में प्रयत्नशील रहा है परंतु यह कहने में अत्युक्ति नहीं है कि इनमें सबसे ज्यादा सफलता पुष्पदंत को मिली है ।
पुष्पदंतोत्तर चरितकाव्य
पुष्पदंत के बाद हमें संधिबद्ध चरितकाव्य या कथाकाव्य के कई उदाहरण मिलते हैं । परंतु उनमें के कई अभी तक पाण्डुलिपि के रूप में ही हैं। जो कुछ थोड़े से
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