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________________ प्रस्तावना हेमचन्द्र द्वारा रचित अपभ्रंश का व्याकरण एक स्वतंत्र और स्वयं पर्याप्त रचना के रूप में नहीं है । अपभ्रंश प्राकृत का ही एक प्रकार होने के कारण हेमचन्द्र ET अपभ्रंश व्याकरण उसके प्राकृत व्याकरण का ही एक भाग है, और वह प्राकृत व्याकरण भी उसके संस्कृत व्याकरण का ही एक अंश हैं; हेमचन्द्र के इस बृहद् व्याकरण का नाम है 'सिद्ध - हेम - शब्दानुशासन' अथवा संक्षेप में 'सिद्ध - हेम' | 'सिद्धहेम' के आठ अध्यायों में से पहले सात में संस्कृत व्याकरण है और आठवें में प्राकृत व्याकरण । प्राकृत के अध्याय में अपभ्रंशसहित छ: प्राकृतों का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ है : पहला, दूसरा तथा तीसरा पाद: व्यापक प्राकृत या महाराष्ट्री चौथा पाद सूत्र "" "" " >: "" "" " 39 23 "" टिप्पणी , 9-259 : संस्कृत धातुओं के स्थान पर प्राकृत में प्रयुक्त धातु- अर्थात् घारवादेश । Jain Education International 260-286 : शौरसेनी 287-302 : मागधी 303-324 : पैशाची 325-328 : चूलिका - पैशाची 329-446 : अपभ्रंश 447-448 : प्राकृतों के बारे में सर्वसामान्य ," इस प्रकार अपभ्रंश के व्याकरण ने 'सिद्ध हेम' के आठ अध्यायों में से अंतिम अध्याय के चौथे पाद का अंतिम अंश लिया है - चौथे पाद के कुल 448 सूत्रों में से अपभ्रंश के हिस्से में 118 सूत्र आये हैं । वररुचि से लेकर मार्कण्डेय या व्यध्वय दीक्षित तक के सभी प्राकृत-व्याकरणकारोंने प्राकृतों का स्वतंत्र, अन्यनिरपेक्ष दृष्टि से प्रतिपादन नहीं किया है । पहले तो संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का स्थान और प्रतिष्ठा काफी निम्न थे । आगे चलकर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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