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शेष जो यहाँ प्राकृत भाषाओं के (प्रतिपादन) में आठवें (अध्याय) में नहीं कहा
है वह सात अध्याय में निबद्ध संस्कृत के अनुसार सिद्ध (होता है)। उदा० हेट्ठ-ठिय-सूर-निवारणाय छत्तं अहो इव वहंती ।
जयइ स-सेसा वराह-सास-दूरुस्खया पुहवी ॥ शब्दार्थ हेट्ठ-ठिय-सूर-निवारणाय-अध:-स्थित-सूर्य-निवारणाय । छत्तं-छत्रम् ।
अहो-अधः । इव-इन । वहंती-वहन्ती । जयइ-जयति । स-सेसा-स
शेषा | वराह-सास-दूरुक्खया-वराह-श्वास-दूरोक्षिप्ता । पुहवी-पृथ्वी । छाया अधः-स्थित-सूर्य-निवारणाय अधः छत्रं वहन्ती इव वराह-श्वास--दूरो
क्षिप्ता स-शेषा पृथ्वी जयति । अनुवाद : नीचे रहे हुए सूर्य (की गरमी) के निवारण के लिये नीचे छत्र धारण करनेवाली,
वराह की साँस से दूर फेंकी गयी शेषसहित पृथ्वी की जय होती है । वृत्ति : अत्र चतुर्य्या आदेश नोक्तः स संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि क चेत्
सस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृते 'उरस'-शब्दस्य सप्तम्येक-वचनान्तस्य 'उरे', 'उम्मि' इ त प्रयोगौ भवतस्तथा क्वचिद् 'उरसि' इत्यपि भवति । एवं 'सिरे', 'सिरम्मि', 'सिरसि': 'सरे', 'सरम्मि', 'सरसि' ।
सिद्ध-ग्रहणम् मङ्गलार्थम् । ततो ह्यायुष्मन्छोतृकताभ्युदयश्चेति ।। - इसमें चतुर्थी का आदेश नहीं कहा है वह संस्कृत के अनुसार सिद्ध है । (फिर) कहा है वह भी कई बार संस्कृत के अनुसार ही होता है । जैसे कि प्राकृत में 'उरस' शब्द का सप्तमी एकवचनका (प्रत्यय) अंत में लगने पर 'उरे', 'उरम्मि' ऐसे प्रयोग होते हैं । वैसे कभी 'उरसि' ऐसा भी होता है । इसी प्रकार 'सिरे', 'सिम्मि', 'सिरसि', 'सरे', सरम्मि', 'सरसि' ।
सूत्र में 'सिद्ध' शब्द है वह मंगल के लिये । इससे श्रोता को आयुष्य और अभ्युदय (प्राप्त होते हैं) ।
इत्य चार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितःयां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ।
___ इस प्रकार आचार्य श्रीहेमचंद्रविरचित सिद्धहेमचंद्रनामक व्याकरण की स्वरचित वृत्ति के आठवें अध्याय का चौथा पाद समाप्त हुआ।
समाप्ता चेयं सिद्धहेमशब्दानुशासनवृत्तिः प्रकाशिका नामेति । सिद्ध हेभ व्याकरण की यह प्रकाशिका नामक वृत्ति भी समाप्त हुई ।
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