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________________ ११४ उनमें सुधार होता गया तब भी साहित्य और शिष्ट व्यवहार में प्राकृतों का सीमित प्रयोग ही था । अतः प्राकृत के अध्ययन का ऐसा विशेष महत्त्व न था । इसलिये जिस प्रकार संस्कृत का स्वतंत्र रूप से, उसके तत्कालीन स्वरूप के सूक्ष्म निरीक्षण और विश्लेषण के आधार पर व्यारण रचा गया, उसी प्रकार या वैसी निष्ठा से प्राकृत का व्वाकरण रचे जाने की संभावना नहीं थी । वस्तुतः संस्कृत जाननेवाले साहित्यप्रिय संस्कारी शिष्टवर्ग को यदि प्राकृत में साहित्य-रचना करनी हों तो उन्हें संस्कृत में कौन कौन से परिवर्तन करने चाहिये जिससे संस्कृत पर से प्राकृत बनायी जा सके मुख्य रूप से इसी दृष्टि से ही प्राकृत के व्याकरण-नियम गढे जाते । अन्य शब्दों में कहें तो संस्कृत को प्रकृति मानकर, उसके उच्चारणों में, व्याकरणतंत्र में तथा शब्दसमूह में हुए विकार के रूप में ही प्राकृत को देखा जाता था। परंपरागत प्राकृत व्याकरणों में ऐसे विकारों की जो टिप्पणी होती है वह सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा निष्कर्ष रूप विवरणों की व्यवस्थित प्रस्तुति नहीं होती और न ही उसका आशय भाषा का स्वरूप और हार्द समजने का होता है । बलिक तुरंत ध्यान में आये ऐसे पचीसपचास विकारों और भेदक लक्षणों की एक टिप्पणी प्रस्तुत कर दी जाती है । इस परंपरागत पद्धति का अनुसरण करके हेमचन्द्र ने भी संस्कृत में से मुख्य प्राकृत से बनाये उसके नियम दे कर, उनके उपरांत अन्य कुछ विशेष नियम लागु करने से शौरसेनी, मागधी, पौशाची, अपभ्रंश आदि सिद्ध होती हैं, उसकी टिप्पणी दी है। इतने पर से स्पष्ट होगा कि हेमचन्द्र के अपभ्रंश-सूत्रों में अथवा तो अन्य कोई भी प्राचीन प्राकृत व्याकरण में शास्त्रीय स्तर का सूक्ष्मदर्शी व्याकरण नहीं, परंतु कुछ ही, तरंत ध्यान में आये ऐसी लाक्षणिकताओं की सतही टिप्पणी ही मिलेगी। इस प्रकार 'सिद्धाहेम' का महाराष्ट्री विभाग उसके संस्कृत व्याकरण के परिशिष्ट जैसा है तो डा सहित इतर प्राकृतों से सम्बन्धित विभाग महाराष्ट्री विमाग के परिशिष्ट जैसा है । स्पष्ट है कि अपभ्रश विभाग के अध्यता के लिये अगला महाराष्ट्रीय विभाग जानना अनिवार्य है । कत की भाँति प्राकृतविभाग भी संस्कृत भाषा में और सूत्रशैली में रचित । सत्रों में तो नितांत संक्षिप्तता और पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रयोग होता है । अतः सूत्रों के अर्थ की व्याख्या को स्पष्ट करने के लिये विशिष्ट नियम दिये जाते हैं। यह नियम और परिभाषा संस्कृत विभाग में दिये हैं । अपभ्रंश विभाग के मजने के लिये उन नियमों और परिभाषा में से कुछ के जानना अनिवार्य है । सत्रों को समझाने के लिये स्वयं हेमचन्द्र ने 'प्रकाशिका' नामक संस्कृत वृत्ति की की है। इसमें उन्हों ने सूत्र में ग्रथित नियम के अपभ्रंश उदाहरण भी दिये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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