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छाया व्यस्तमने समाकुलेन चक्रवालेन कंठे वितीर्णः मृणाल्याः खण्डः न छिन्नः
यथा जीवार्गल: दत्तः । अनुवाद सूर्य अस्त होने पर विह्वल चक्रवाक ने कमलतंतु का टुकड़ा गले में
( = मुँह में) रखा परंतु तोड़ा नहीं-मानों प्राणों के आगे अर्गला
लगा दी। उदा० (३) वलयावलि-निवडण-भऍण धण उद्ध-भुअ जाइ ।
वल्रह-विरह-महादहहाँ थाह गवेसइ नाइ ॥ शब्दार्थ . वलयाव ल -निवडण-भऍण-वलयावलि-निपतन-भयेन । धण (दे.)-नायिका
उद्ध-भुअ-ऊर्ध्व-भुजा । जाइ-याति । वल्लह-विरह-महादहहों-वल्लभ
विरह-महाहृदस्य । थाह-स्ताघम् । गवेषसइ-गवेषयति । नाइ-इव ।। छाया नायिका वलयावलि-निपतन-भयेन ऊर्ध्व-भुजा याति । वल्लभ-विरह
मह' हृदस्य स्ताधम् गवेषयति इव । अनुवाद कंकण गिरने के भय से नायिका हाथ उठाये जा रही है-मानों (वह)
प्रियतम के विरह रूप विशाल जलाशय की थाह ले रही हो ! वृत्ति नावइउदा० (४) पेक्खेविणु मुहु जिणवरों दोहर-नयण-सलोणु ।
नावइ गुरु-मच्छर-भ रउ जलणि पवीसइ लोणु || शब्दार्थ पेक्खोवणु-प्रेक्ष्य । मुहु-मुखम् । जिणवरहों-जिनवरस्य । दीहर-नयण
सलोणु-दीर्घ-नयन-सलावण्यम् | नावइ-इव | गुरु-मच्छर-भरि उ-गुरु
मत्सर-भृतः । जलणि-ज्वलने । पवीसइ-प्रविशति । लोणु-लवणम् । छाया जिनवरस्य दीर्घ-नयन-सलावण्यम् मुखम् प्रेक्ष्य लवणम् गुरु-मत्सर-भृतम्
इव ज्वलने प्रविशति । अनुवाद जिनवर का विशाल नयनों के कारण 'सलोन' ( = सलोना) (ऐसा) मुख
देखकर बहुत मत्सर से भरा 'लोन' आग में प्रवेश करता है। वृत्ति जणिउदा० (५) चंपय-कुसुमहाँ मज्झि सहि झपलु पइट्ठउ । सोहइ इंदणीलु
जणि कणइ बइठ्ठउ ॥ शब्दार्थ चंपय-कुसुमहाँ-चम्पक-कुसुमस्य । मज्झि-मध्ये । सहि-सखि । भसलु
(दे.)-भ्रमरः । पइट्ठउ-प्रविष्टः । सोहइ-शोभते । इंदणीलु--इन्द्रनीलः । जणि-इव । कगइ-कनके । बहउ-उपविष्टः ।
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