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________________ १०७ छाया यः गङ्गाम् गत्वा शिव-तीर्थम् गत्वा (वा) म्रियते, सा यम-लोकेम् जित्वा त्रिदशावास-गतः क्रीडति । अनुवाद जो गगा(किनारे) जा कर या शिवके तीर्थ में जा कर मरते हैं, वे यमलोक को जीत कर देवलोक में क्रीड़ा करते है । 443 तृतोऽण ॥ 'तृन्' का 'अण' । अपभ्रंशे तृनः प्रत्ययस्य 'आग' इत्यादेशो भवति । अपभ्रंश में 'तृन्' प्रत्यय का 'अणअ' ऐना आदेश होता है । उदा० हत्थि मारणउ लोउ बोल्लगउ । पडहु वज्जणउ सुणहु भसणउ । शब्दाथ हस्ति-हस्ती । मारणउ-मारयिता । लोउ-लोकः । बल्लणउ-वक्ता । पडहु-पटहः । वजण उ-वदिता । सुणहु-श्वा । भसगउ-भषिता । छाया हस्ती मारविता । लोकः वक्ता । पटहः वदिता । श्वा भषिता । अनुवाद हाथी मारने का आदी लोग बोलने के आदि, ढोल बजने का आदी और कुत्ता भौंकने का आदी । 444 इवार्थे नं-नउ-नावइ-जणि-जणवः ।। वृत्ति अपभ्रशे-इव शब्दस्याथे ',' 'नउ', 'नाइ', 'नावइ', 'जणि', 'जणु' । इत्थेते षट् भवन्ति । नंअपभ्रंश में 'इव' इस शब्द के अर्थ में '' 'न', 'नाई', 'नावई'. 'जणि', 'जणु', ये छः होते हैं । (जैसे कि) नंउदा० (१) नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु कहि । (देखिये 382) । वृत्ति नउउदा० (२) रवि-अत्थमणि समाउले ण कंठि विइण्णु न छिण्णु । चक्के खंडु मुणालिअहे नउ जीवगालु दिण्णु ॥ शब्दार्थ रवि-प्रत्थः णि-रव्या तमने । समाउलेण-समाकुलेन । कंठि-कण्ठे । विइण्णु-वितीर्ण: । न-न । छिण्णु-छिन्नः । चक्कें-नक्रवाकेन । खंडु-.. खण्डः । मुणालि अहे-मृणाल्याः । नउ-इव, यथा । जीवग्गलु-जीवा-.. गेल: दिण्णु-दत्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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