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________________ १०२ कर्तव्यम् । किं-पि-किम् अपि । न-वि-न अपि, नैव । मरिएव्वउँ मर्तव्यम् । पर-केवलम् । दिज्जर-दीयते । छाया यद् एतद् गृहीत्वा यदि मया प्रियः अवशेप्यते, (ततः) मम किम् अपि नैव कर्तव्यम् । केवलम् मर्तव्यम् (एव) दीयते । अनुवाद उसे लेकर यदि मैं प्रियतम को बाकी रक्खू (बचा लूं) (तो फिर) मुझे कुछ भी करना नहीं (होगा) । केवल मरना (ही) प्राप्त करना होगा । उदा० (२) देसुच्चाडणु सिहि-कढणु घण-कुट्टणु जं लोइ । मंजिहएँ अइ-रत्तिएँ सव्वु सहेव्वउँ होइ ।। शब्दार्थ देसुच्चाडणु-देशोच्चाटनम् । सिहि-कढणु-शिखि-क्वथनम् । घणकुट्टणु-घन-कुट्टनम् । ज-यद् । लोइ-लोके । मंजिट्ठऍ-मञ्जिष्ठया अइ-रत्तिअऍ-अति-रक्तया । सव्वु-सर्वम् । सहेव उ-सोढव्यम् । होइ भवति । छाया यद् लोके देशोच्चटनम्, शिखि-क्कथनम्, घन-कुट्टनम् सर्वम् (तद्) अति-रक्तया मञ्जिष्ठया सोढव्यम् भवति । अनुवाद संसार में जो स्वस्थान में से उखड़ना, आग में खौलना, घन की चोंटे खाना (आदि जो है वह) सब अति रक्त (1. अतिशय लाल, 2. अतिशय अनुरक्त) ऐसी मंजिष्ठा को सहना है । उदा० (३) सोएवा पर वारिआ पुप्फबईहि समाणु । जग्गेवा पुणु को धरई जइ सो वेउ पमाणु ।। शब्दार्थ सोएवा-स्वपितत्र्यम् । पर-केवलम् । वारिआ-वारितम् । पुप्फबईहि - पुष्पवतीभिः । समाणु-समम् | जग्गेवा--जागर्तव्यम् । पुणु-पुनः । को-कः । घरइ-धरति । जइ-यदि । सो-सः । वेउ-वेदः । पमाणु प्रमाणम् । छाया यदि सः वेदः प्रमाणम् (तथापि) पुष्पवतीभिः समम् स्वपितव्यम् वारितम् । जागर्तव्यम् पुनः कः धरति । अनुवाद यदि यह वेद का वाक्य प्रमाण (हो, तो भी) रजस्वला के साथ सोना (यह) निषिद्ध है परंतु जागने को कौन रोकता है ? (जागने का कौन विरोध करता है ?) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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