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________________ छाया उदा० (११) सरिहि सरेहि न सरवरे हि न-वि उज्जाण-वणेहि । देस रवण्णा होति वढ निवसं तेहि सुअणेहि ॥ शब्दार्थ सरिहि-सरिदभिः । न-न । सरेहि-सरोभिः । न-न । सरवरे हि सरोवरैः । न-वि-न अपि । उज्जाण-वणेहि-उद्यान-वनैः । देसदेशाः । रवण्णा-रम्याः । होंति-भवन्ति । वढ (दे.) मूर्ख । निवसंते हि-निवसद्भिः । सुअणेहि -सुजनः । मूर्ख, न सरिद्भिः, न सरोवरैः, न अपि उद्यान-वनैः, (अपि तु) निव सद्भिः सुजनैः एव देशाः रम्याः भवन्ति । अनुवाद मूर्ख, देश रमणीय होते हैं वह वहाँ बसते सज्जनों के कारण, नहीं कि नदियों, तालाबों, झीलों, उद्यानों और वनों के कारण । वृत्ति अद्भुतस्य ढक्करिः । 'अद्भुत' का 'ढक्करि'उदा० (१२) हिअडा पइँ ऍहु बोल्लिअउँ महु अग्गइ सय-वार । 'फुट्टिसु पिएँ पवसते हउँ' भंडय ढक्करि-सार ॥ शब्दार्थ हिअडा-हृदय । पइँ-त्वया । एह-एतद् । बोल्लिअउँ-कथितम् । महु मम । अग्गइ-अग्रे । सय-बार = शत-वारम् । फुट्टिसु-स्फुटिष्यामि । पिएँ-प्रिये । पवसंते-प्रवसति । हउँ-अहम् । भंडय (दे.)-निर्लज्ज । ढक्करि (दे.)-सार-अद्भुत-सार । छाया हृदय, निर्लज्ज, अद्भुत-सार, मम अग्रे त्वया शत-वारम् एतद् कथितम् प्रिये प्रवसति अहम् स्फुटिष्यामि' (इति) । अनुवाद हे हृदय, निर्लज्ज ! अद्भुत दृढतावाले ! तुने मुझे सौ सौ बार ऐसा कहा था कि प्रियतम के प्रवास जाने पर मैं फट पडूंगा । वृत्ति (१३) हे सखीत्यस्य हेल्लि । 'हे सखी' का 'हेल्लि' । उदा० हेल्लि म झंखहि आलु । (देखिये 379/3) वृत्ति पृथक् पृथगित्यस्य जुअंजुमः । 'पृथक पृथक्' का 'जुअंजुअ' - उदा० (१४) एक्क कुडुल्ली पंचहि रुद्वी तहँ पंचहँ-वि जुअंजुअ बुद्धी । बहिणुएँ तं धरु कहि किव नंदउ जेत्थु कुडुंबउँ अप्पण-छंदउँ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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