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छाया
हरिः प्राङ्गणे नर्तितः । लोकः स्मिये पातितः । इदानीम् राधा-पायोघरयोः यद् भावयति तद् भवतु ।
अनुवाद
हरि को आंगन में नचाया, (और इस तरह) लोगों को विस्मित किया । अब राधा के पयोधरों का जो चाहे ( = होना हो) वह हो !
वृत्ति प्रत्युतस्य पञ्चल्लित।
'प्रत्युत' का 'पञ्चल्लि' । उदा० (५) सार-सलोणी गोरडी नवखी क-वि विस-गंठि ।
भडु पच्चल्लिउ सो मरइ जासु न लग्गइ कंटि ॥ शब्दार्थ साव-सलोणी-सर्व-सलावण्या । गोरडी गौरी । नवखी-नवीना । क-वि
का अपि । विस-गठि-विष-ग्रन्धिः । महु-भटः । पच्चल्लि उ-प्रत्युत । सो-स: । मरइ-म्रियते । जासु-बस्य । न-न । लगाइ-लगति । कंठि-कण्ठे ।
छाया
सर्व-सलावण्या गौरी का अपि नवीना विष-प्रन्थिः । प्रत्युत सः भट:
म्रियते यस्य कण्ठे (सा) न लगति । अनुवाद सर्वांगसुन्दर गोरी कोई अनोखी (अलग प्रकार की) विषग्रंथि (बछनाग)
है । उलटे यह जिसके गले नहीं लगती वह प्रेमी मर जाता है । वृत्ति इतस एत्तहे । 'इतस्' का 'एत्तहे' । उदा० (६) एत्तहे मेह पिअंति जलु । (देखिए 419/6) 421
विषण्णोक्त-वर्त्मनो बुन्न-वुत्त-विच्च ॥ 'विषण्ण', 'उक्त', 'वर्मन्' का 'बुन्न', 'वुत्त', 'विच्च' ।
वृत्ति
अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेशा भवन्ति । विषण्णस्य वुन्नः । अपभ्रंश में 'विषण्ण' आदि का 'वुन्न' आदि आदेश होता है । 'विषण्ण' का 'वुन्न'
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