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________________ ७७ शब्दार्थ विहवि-विभवे । पणट्ठइ-नष्टे । वकुडउ-चक्रः । रिद्धेहि -ऋद्धौ । जण-सामन्नु-जन-सामान्यः । किं-पि-किम् अपि । मणा-मनाक् । महु-मम | पिअहो -प्रियस्य । ससि-शशी । अणुहरइ-अनुहरति । न-न | अन्नु-अन्यः । छाया अनुवाद विभवे प्रनष्टे वक्रः । ऋद्धौ (च) जन-सामान्यः । मम प्रियस्य शशी किम् अपि मनाक् अनुहरति । न अन्यः । वैभत्र नष्ट होने पर बाँका (और) समृद्धि में सब लोगों के जैसा-यों (एक मात्र) चंद्र कुछ कुछ मेरे प्रियतम के जैसा है, और दूसरा कोई नहीं । __किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवे सहुँ नाहि ॥ 'किल', 'अथवा', 'दिवा', 'सह', 'नहि' का 'किर', 'अहवइ', 'दिवे, 'सहुँ', 'नहि । 419 वृत्ति अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति । किलस्य किरः । अपभ्रंश में, 'किल' आदि के 'किर' आदि आदेश होते हैं । 'किल' का 'किर – ' उदा० (१) किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्भि न वेञ्चइ रूअडउ । इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणे ण पहुच्चइ दूअडउ ॥ शब्दार्थ किर-किल । वाइ-खादति । न-न । पिअइ-पिबति । न-न । विद्दवइ-विद्रवति ( = ददाति )। धम्मि-धर्मे । न-न । वेच्चइ-व्ययति । रूअडउ-रूपकम् । इह-इह । किवणु-कृपणः । न-न | जाणइजानाति । जइ-यदि । नमहो-यमस्य । खणे ण-स्रणेन । पहुच्चइ-प्रभवति । दूअडउ-दूतः । छाया कृपणः किल न खादति, न पिवति, (न) ददाति, न धर्म रूपकम् व्ययति । इह (सः) न जानाति यदि यमस्य दूतः क्षणेन प्रभवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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