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________________ 409 उदा० छाया परस्परस्यादिरः ॥ 'परस्पर' के आदि में 'अ' । वृत्ति अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । अपभ्रंश में, 'परस्पर' के आदि में अकार आता है । ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहूँ । अवरोप्पर जोअंताहँ सामिउ गंजिउ जाहँ । शब्दार्थ ते-ते । मुगाडा-मुद्गाः । हराविअ-हारिताः । जे-ये। परिविट्ठापरिविष्टाः । तहँ-तेभ्यः । अवरोप्परु-परस्परम् । जोअंताहँ-पश्यताम् । सामिउ-स्वामी । गंजिउ (दे.)-पराजितः । जाहँ-येषाम् । ये मुद्गाः तेभ्यो परिविष्टाः, ते (तैः) हारिताः, थेषाम् परस्परम् पश्यताम् स्वामी पराजितः । अनुवाद जिन्होंने एक-दसरे को देखा (= देखते रहे और) स्वामी का पराजय हुआ, उन्हें जो मँग परोसे थे वे निष्फल (ही) गये । 410 कादिस्थैदोतोरुच्चार लाघवम् ॥ 'क' आदि में स्थित 'ए' और 'ओ' का उच्चारलाघव । वृत्ति अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोरे ओरि इत्येतयोरुच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति । अपभ्रंश में, 'क' आदि व्यंजनों में स्थित 'ए', 'ओ' का उच्चार प्रायः लघु होता है । उदा० (१) सुघे चिंतिजह माणु (देखिये 396/2) उदा० (२) तसु हउँ कलि-जुगि दुलहहों । (देखिये 338) 411 पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम् ॥ वृत्ति अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां 'उ', 'हुँ', हि', 'हं' इत्येतेषां उच्चारण लाघवं प्रायः भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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