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________________ उदा० (१) जह केव - इ पावीसु पिउ । (देखिये 396/4) वृत्ति पक्षे | अन्य पक्ष में : उदा० (२) जई भग्गा पारकडा तो सहि मज्झु प्रिएण (देखिये 379/2) । 399 वृत्ति उदा० (१) ब्रासु महा-रिसि एउ भगइ मायाँ चलण नवंताह छाया अनुवाद अभूतोऽपि क्वचित् ॥ न था ऐसा भी कहीं । अपभ्रंशे कचिदविद्यमानोऽपि रेफो भवति । अपभ्रंश में कहीं, (मूल में) न हो ऐसा रेफ भी होता है । वृत्ति शब्दार्थ वासु-यशसः 1 महा-रिसि - महर्षिः । एउ- एतद् । भणभणति, कथयति । जह-यदि । सुइ-हरथु - श्रुति - शास्त्रम् । पमाणु-प्रमाणम् मायहँ - मातॄणाम् । चला - चरणौ । नवताएँ -नमताम् । दिवे दिवे - दिवा दिवा ( = दिवसे दिवसे) । गंगा - "हाणु - गङ्गा-स्नानम् । 'जइ सुइ - सत्थु पमाणु । दिवे दिवे गंगा - हाणु' || V महर्षिः व्यासः एतद् कथयति - यदि श्रुति-शास्त्रम् प्रमाणम् (ततः) मातृणाम् चरणौ नमताम् दिवसे दिवसे गङ्गा-स्नानम् (इति) | महर्षि व्यास इस प्रकार कहते हैं : यदि श्रुतिशास्त्र प्रमाणरूप हों, (तो) माताओं के चरणों में झुकनेवालों को दिन-ब-दिन गंगास्नान ( समान पुण्य प्राप्त होता होगा यह जान लिजिये ) | तदा० (२) वासेण वि भारह - खभि बद्ध । शब्दार्थ छाया अनुवाद कचिदिति किम् | (सूत्र में) 'क्वचित् ' ( = कहीं) ऐसा ( है वह) क्यों ? (देखिये यह उदाहरण ) : Jain Education International वामे-यासेन । वि-अपि । भारह खंभि - भारत - स्तम्भे । बद्ध-बद्धाः । व्यासेन अपि भारत - स्तम्भे बद्धा: । व्यासने भी भारतरूपी स्तंभ से बाँध... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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