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शब्दार्थ __ उअ (दे.)-पश्य । कणि आरु-कणिकारः । पफुल्लिअउ-प्रफुल्लः । कंचण
कंति-पयासु-काञ्चन-कान्ति-प्रकाशः । गोरी-वयण-विणिज्जिअउ-गौरी
वदन-विनिर्जितः । नं-ननु । सेवइ-सेवते | वण-वासु-वन-वासम् । छाया कर्णिकारः प्रफुल्लितः काञ्चन-कान्ति-प्रकाशः । गौरी-वदन-विनिर्जितः
ननु (अयम्) वन-वासम् सेवते । अनुवाद देखो, कनेर खिली (है वह कैसो) सोनेरी कांति से प्रकाशित हो रही है।
मानों गोरी के चेहरे से पराजित हो कर (वह) वनवास का सेवन कर रही है।
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मोऽनुनासिको वो वा ॥
उदा० छाया
'म' का अनुनासिक 'व', विकल्प में । अपभ्रंशेऽनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिको वकागे वा वा भवति । अपभ्रंश में अनाद्य, असंयुक्त मकार का अनुनासिक वकार विकल्प में होता है। कवलु । कमलु ।। भवँरु । भमरु || कमलम् ।। भ्रमरः ॥ कमल । भ्रमर । लाक्षणिकस्यापि । (यहाँ दिये गये) नियमानुसार जो सिद्ध हुआ हो उसका भी । जिव । तिव । जे । तेवँ । यथा । तथा। । यथा । तथा । जैसे । वैसे । जैसे । वैसे । अगदावित्येव । 'मयणु' । असंयुक्तस्येत्येव । 'तसु पर सभलउँ जम्मु' । अनाद्य का ही : 'मयणु' ( = 'मदनः' या 'मदनम्')। असंयुक्त का ही : 'तसु पर सभलउँ जम्म' (देखिये 396/3)
वृत्ति
उदा० छाया
वृत्ति
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वाऽधो रो लुक् ॥ पिछे का '' विकल्प में लुप्त । अपभ्रंशे संयोगादधो वर्तमानो रेफो लुग् वा भवति । अपभ्रंश में संयुक्त व्यंजनों में परवर्ती रेफ विकल्प में लुप्त होता है।
वृत्ति
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