________________
छाया
(तेन) पुत्रेण जातेन को गुणः, मृतेन (वा) क. अवगुणः, यावत् पैतृकी भूमिः अपरेण आक्रम्यते । जब तक पुश्तैनी भूमि किसी दूसरे के द्वारा दबो (हड़प की हुई) रहे तब तक पुत्र के जन्म से क्या लाभ, (वैसे ही) उसके मरण से क्या हानि ?
अनुवाद
उदा० (७) तं तेत्तिउ जलु सायरहों सो तेवडु वित्थारु ।
तिसहों निवारणु पलु विन-वि पर धुद्धअइ असारु ।। शब्दार्थ तं-तद् । तेत्तिउ-तावत् । जलु-जलम् । सायरहों-सागरस्य | सो-सः ।
तेवडु-तावन्मात्र: । विस्थारु-विस्तारः । तिसहों-तृषायाः निवारणुनिवारणम् । पलु-पलम् । वि-अपि । न-वि-नापि ( = नैव)। पर-परम् ।
धुद्धअइ (दे.)-शब्दायते । असार-असारः । छाया सागरस्य तद् तावत् जलम् । सः तावन्मात्र: विस्तारः । तृषायाः
निवारणम् (तु) पलम् अपि नैव । परम् असारः शब्दायते । अनुवाद समुद्र का इतना सारा यह जल, और इतना बड़ा विस्तार । परंतु पल
भर के लिये भी प्यास का निवारण (उस से होता) नहीं है । बेकार
ही (वह) गरजता रहता हैं । 396 अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ-प-फां ग-घ-द-ध-ब-भाः॥
अनाद्य स्वर के बाद आते और असंयुक्त ऐसे 'क', 'ख', 'त', 'थ', 'प', 'फ' का 'ग', 'घ', 'द', 'ध', 'ब', 'भ' ।
अपभ्रंशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात् परेषामसंयुक्तानां क-ख-त-य-य-फानां स्थाने यथासंख्यं ग-घ-द-ध-ब-भाः प्रायो भवन्ति ।। अपभ्रंश में पद के आरंभ में न हों ऐसे, स्वर के वाद आते और असंयुक्त ऐसे 'क', 'ख', 'त', 'थ', 'प', 'फ' के स्थान पर क्रमशः
'ग', 'ब', 'द', 'ध', 'ब', 'भ', कई बार होता है। वृत्ति कस्य गः ।
'क' का 'ग' ।
वृत्ति
उदा० (१) जं दिट्ठउँ सोम-गहणु असइहि हसिउ निसंकु।
_ 'पिअ-माणुस-बिच्छोह-गरु गिलि गिलि राहु मियंकु ॥ शब्दार्थ जं-यद । दिउँ-पृष्टकम् , दृष्टम् । सोम-गहणु-सोमग्रहणम् । असइहि
असतीभिः । हसिउ-हसितम् । निसंकु-निःशङ्कम् ! पिअमाणुस-विच्छोह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org