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________________ छाया गरु-प्रिय-मनुष्य-विक्षोभ-(= वियोग-) करम् । गिलि गिलि-गिल गिल । राहु-राहो । मियंकु-मृगाङ्कम् । यद् सोम-ग्रहणम् दृष्टम् , (ततः) असतीभिः निःशङ्कम् हसितम् । (उत्तम् च) 'राहो, पिय-मनुष्य-वियोग-करम् मृगाङ्कनू गिल, गिल' । चंद्र का ग्रहण (होते) देखा तो असतियाँ निःशंक रूप से हँस उठी (और बोलो) 'राहु, प्रियजन से वियोग करनेवाले चंद्र को निगल जा, निगल जा ।' अनुवाद वृत्ति खस्य घः । 'ख' का 'घ' । 'उदा० (२) अम्मिएँ सन्थावस्थेहि सुघे चिंतिज्जइ माणु । पिएँ दिठे हल्लोहले ण को चेअइ अप्पाणु ।। शब्दार्थ अम्मिएँ-अम्ब ( = सखि) । सत्थायत्थे हि-स्वस्थावस्थैः । सुघे - सुखेन । चिंतिज्जइ-निन्त्यते । माणु-मानः । पिए-प्रिये । दिठे-दृष्टे । हल्लोहले ण (दे.)-व्याकुलत्वेन । को-कः । चेअइ-चेतयति । अप्पाणुआत्मानम् । अम्ब ( = सलि) स्वस्थावस्यैः मानः सुखेन चिन्त्यते । प्रिये दृष्टे (तु) व्याकुलत्वेन को आत्मानम् चेतयति । अनुवाद माँ, स्वस्थ (मनो)दशावाले (हों वे) मान (करने) का सुख से सोचे (सोच सके) । (परंतु यहाँ तो) प्रिय को देखते ही विकलता में अपना होश (ही) किसे रहता है (कि मान करने का विचार करे') ? त-य-प-फानां द-ध-ब-भाः । 'त', 'थ', 'प', 'फ' का 'द', 'घ', 'ब', 'भ' । छाया वृत्ति उदा० (३) सबधु करेपिणु कधिदु मई तमु पर सभलउ जम्मु । नासु न चाउ न चारहडिन-य पम्हुठ्ठउ धम्मु ॥ शब्दार्थ सबधु-शपथम् । करेषिणु-कृत्वा । कधिदु-कथितम् । मइँ-मया । तसुतस्य । पर-परम, केवलम् । सभलउ-सफलकम्, सफलम् । जम्मु-जन्म । जासु-यस्य । न-न । चाउ-त्यागः । न-न । चारहडि-चारभटी, शौर्यवृत्तिः । न-य-न च । पम्हुट्ठउ (दे.)-विलुप्तः । धम्मु-धर्मः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001465
Book TitleApbhramsa Vyakarana Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages262
LanguageApbhramsa, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size12 MB
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