________________
उदा० छाया अनुवाद
बुझइ । बुञप्पि । वुप्पिणु ।। ब्रजति । व्रजित्वा । व्रजित्वा । जाता है । जा कर । जा कर ।
393
वृत्ति
दृशेः प्रस्सः ॥ 'दृशि' ( = 'दृश') का 'प्रस्स' । अपभ्रंशे दृशेर्धातोः 'प्रस्स' इत्यादेशो भवति । अपभ्रंश में 'दृशि' ( = 'दृश) धातु का 'प्रस्स' ऐसा आदेश होता है । प्रस्सदि । पश्यति । देखता है ।
उदा० छाया अनुवाद
394
ग्रहेण्हः ॥
वृत्ति
छाया
395
'अहि' ( = 'ग्रह') का 'गृह' । अपभ्रंशे ग्रहे_तो 'गृण्ड' इत्यादेशो भवति ।
अपभ्रंश में 'ग्रहि' ( = 'ग्रह') धातु का 'गृण्ह' ऐसा आदेश होता है। उदा० पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु ॥ शब्दार्थ पढ-पठ । गृण्हेप्पिणु-गृहीत्वा । व्रतु = व्रतम् ।
व्रतम् गृहीत्वा पठ । अनुवाद व्रत लेकर पढ़ ।
____ तक्ष्यादीनां छोल्लादयः ।। वृत्ति अपभ्रंश में 'तक्षि' ('तक्ष') आदि धातुओं के 'छोल्ल' आदि आदेश
होते हैं। उदा० (१) जिव तिवें तिक्खा लेवि कर जई ससि छोल्लिज्जंतु ।
तो जइ गोरिहे मुह-कमलि सरिसिम का-वि लहंतु ॥ शब्दार्थ जि तिव-यथा तथा । तिक्वा-तीक्ष्णान् । लेवि-गृहीत्वा । कर-करान् ।
जइ-यदि । ससि-शशी । छोल्लिज्जतु (दे.)-अतक्षिष्यत । तो-ततः । जइ-जगति । गोरिहे-गौर्याः । मुह-कमलि-मुख-कमलेन । सरिसिमसदृशताम् । का-वि-कामपि । लहंतु-अलप्स्यत ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org