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उदा० (२) तउ गुण-संपइ, तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खंति ।
जइ उप्पत्ति अण्ण जण महि-मंडलि सिक्खंति ॥ शब्दार्थ तउ-तव । गुण-सम्पइ-गुण-सम्पदम् । तुज्झ-तव । मदि-मतिम् ।।
तुध्र-तव । अणुत्तर-अनुत्तराम् । खंति-क्षान्तिम् । जइ-यदि । उप्पत्तिउत्पद्य (?) । अण्ण-अन्ये । जण-जनाः । महि-मंउलि-मही-मण्डले ।
सिक्खंति-शिक्षन्ते । छाया मही-मण्डले उत्पद्य (?) अन्ये जनाः तव गुण-सम्पदम् , तव मतिम् ,
तव अनुत्तराम् शान्तिम् (च) शिक्षन्ते (तहि वरम्) ।। अनुवाद महीमंडल में उत्पन्न होकर (१) अन्य जन तुम्हारी गुणसंपत्ति,
तुम्हारी बुद्धि (और) तुम्हारी असाधारण क्षमा सिखे (यदि !-)। 373
भ्यसाम्भ्यां तुम्हहँ ॥ 'भ्यस ' और 'आम्' सहित 'तुम्हहँ' । अपभ्रंशे युष्मदो 'भ्यस.' 'आम्' इत्येताभ्याम् सह 'तुम्हहँ' इत्यादेशो भवति ।। अपभ्रंश में युष्मद् का, 'भ्यस' ( = पंचमी बहुवचन का प्रत्यय) और 'आम्' (= षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) ऐसे इन दो प्रत्ययों सहित,
'तुम्हहँ' ऐसा आदेश होता है । उदा० (१) तुम्हहँ होतउ आगदो ॥ छाया युष्मत् भवान् ( = युष्मत्तः) आगतः ।। अनुवाद तुम्हारे पास से आया । उदा० तुम्हह केरउँ घणु ॥ छाया युष्माकम् सम्बन्धि धनम् (वा धनुः)। अनुवाद तुम्हारा धन (या, धनुष्य)।
वृत्ति
374
वृत्ति
तुम्हासु सुपा ॥ 'सुप्' सहित 'तुम्हासु'। अपभ्रंशे युष्मदः सुपा सह 'तुम्हासु' इत्यादेशो भवति । अपभ्रंश में 'युष्मद' का, 'सुप्' (= सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय) सहित 'तुम्हासु' ऐसा आदेश होता है ।
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