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टाक्ष्यमा पइँ तइँ ॥ 'टा', 'ङि', 'अम्' के साथ 'पइँ', 'तइँ' । वृत्ति अपभ्रंशे — टा', 'डि', 'मम्' इत्येतैः सह 'पइँ', 'त' इत्यादेशौ
भवतः। टाट । अपभ्रंश में 'टा' (= तृतीया एकवचन का प्रत्यय), "डि' ( = सप्तमी एकवचन का प्रत्यय) और 'अम्' ( = द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) इनके सहित ('युष्मद्' के) 'पइँ, 'तइँ' ऐसे आदेश होते हैं
(जैसे कि) 'टा' के साथ :उदा० (१) पइँ मुक्काहँ वि वर-तरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं ।
तुह पुणु छाया जइ होज्ज कह-वि ता तेहि पत्तेहिं ॥ शब्दार्थ पइँ-त्वया । मुक्काहँ-मुक्तानाम् । वि-अपि । वर-तरु-वर-तरु ।
फिटइ (दे.)-विनश्यति । पत्तत्तणं-पत्रत्वम् । न-न । पत्ताण-पत्राणाम् । तुह-तव । पुणु-पुनः । छाया-छाया। जइ-यदि । होज्ज-भवेत् । कह-वि
कथम् अपि । ता-तावत्, तहि । तेहि -तैः । पत्तेहिं-पत्रैः ॥ छाया
(हे) वर-तरु त्वया मुक्तानाम् अपि पत्राणाम् पत्रत्वम् न विनस्यति । तव
पुनः यदि छाया भवेत् , तर्हि (सा) कथम् अपि तैः पत्रैः (एव) । अनुवाद हे तरुवर, तुम्हारे द्वारा त्याग किये गये (हो) फिर भी इन पत्तों का
पर्णव नष्ट नहीं होता है, जब कि यदि तुम्हारी छाया है तो (चाहे)
कैसे भी पर इन पत्तों के कारण (ही) । उदा० (२) मह हिउँ तह, ताएँ तुहुँ स वि अण्णे विणडिज्जइ ।
पिअ, काई करउ हउ, काई तुहुँ मच्छे मच्छु गिलिज्जा ॥ शब्दार्थ महु-मम । हिअउँ-हृदयम् । तइँ-त्वया । ताएँ-तया । तुहुँ-त्वम् ।
स-सा । वि-अपि । अण्णे-अन्येन 1.विणडिज्जइ (दे.)-व्याकुलीक्रियते। पिअ-प्रिय । काइँ-किम् । करउँ-करोमि । हउँ-अहम् । काइँ-किम् ।
तुहुँ-त्वम् । मच्छे-मत्स्येन । मच्छु-मत्स्यः । गिलिज्जइ-गिल्यते ॥ छाया मम हृदयम् त्वया, स्वम् तया, सा अपि अन्येन व्याकुलीक्रियते । प्रिय.
किम् अहम् करोमि, किम् त्वम् , (यत्र) मत्स्येन मत्स्यः गिल्यते ॥ अनुवाद मेरा हृदय तुम्हारे द्वाग, तुम्हारा उसके द्वारा, और उसका भो किसी
और के द्वारा विकल किया जाता हैं । (इस प्रकार जहाँ) मछली मछली द्वारा निगली जाती है, (वहाँ), है प्रिय, क्या मैं करूं (या) क्या तुम ?
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