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जइ किवँइ-वि खंचह पय-जुयलु इहु विहि-वसिण विहट्टइ । ता तुज्झ मज्झु खीणउ खरउ, किं न खामोअरि तुट्टइ ॥ १३६
___ 'हे मानिनी, तुं मारो हाथ मरडीने अने तारा चीरनो पालव छोडावीने भले चाली जती, तो पण तुं कृपा करीने मारुं कहेवू सांभळ : हे प्रिया, तुं उतावळे चाल मा, केम के जो अकस्मात् खचको आवतां तारा बंने पग लथडशे तो हे कृशोदरी, तारी अतिशय कृश कटि तूटी तो नहीं पडे ?
नोंध : वस्तुवदनक, कर्पूर वगेरे छंदो जोडाईने बनती विविध द्विभंगीओ मागधोमां षट्पद के सार्धछंद एवा सामान्य नामे प्रसिद्ध छ । कां छे के :
जइ वत्थुआण हेतु उल्लाला छंदयम्मि किज्जंति ।। दिवढ-च्छंदय-छप्पय-कव्वाइं ताई वुच्चंति ॥ १३७ ।
'वस्तुकना प्रकारना छंदोनी पछी उल्लाल योजीने जे छंदो रचवामां आवे, ए छंदोने सार्ध छंद, षट्पद के काव्य एवी संज्ञाओ अपाय छ ।'
__आ ज प्रमाणे मात्राछंदनी साथे द्विपदी अने उल्लाल ए छंदो जोडीने तथा वस्तुक वगेरे छंदोनी साथे दोहा वगेरे छंदो जोडीने द्विभंगीओ बनावाय छे ।
मान्य परंपरा अनुसार रडा छंदनु (ते द्विभंगी होवा छतां पण) अलग निरूपण कर्यु छे तो तेमां कशो दोष नथी । त्रिभंगिका (त्रण छंदोगें जोडाण) द्विपदी + अवलंबक + गीतिनी त्रिभंगिकानुं उदाहरण : निब्भर-दलिअ-सत्तदल-पायव-संकड-तडिणि-पुलिणिआ,
सेहालिअ-पसूण-पर-परिमल-पुण्ण-पहाय-पवणया । कुवलय-गंध-लुद्ध-फुलंधुअ-पत्थुअ-गीति-भंगिआ',
__पंकय-वण-कणंत-कलहंसी-कुल-हुंकार-संगिआ ॥ ओहट्टिअ-चिक्खल्लया, निम्मल-जल-सोहिल्ल्या,
राय-रणूसव-दूअया, कलमामोअ-पसूअया ॥ तिहुअण-लच्छी-भवणया जोण्हा-जल-भरिअ-नहयलाभोअया,
कस्स न हरंति चित्तयं एए लोअम्मि सारया दिअहया ॥ १३८ 'जेमां पूरेपूरा विकसित सप्तपर्णना तरुओथी नदीना तीरप्रदेशो खीचोखीच
छे,
जेमां प्रभातनां पवनो शेफालिकाना पुष्पपरिमले सभर छे,
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