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रह्यो छे। केवी शोभी रही छे आ झूला पर झूलती बाला ! (४.१०१) (प्राकृत) विरह :
ए एकनी एक विलासिनी गाममां अने पत्तनमां, हाटमां अने चौटामां, राजकुलमां, देवळमां अने नगरमां सर्वत्र मने देखाय छे : विरहरू पी इन्द्रजालिके एने बहुरूपिणी बनावी दीधी छे । (५.३१)
तारा विरहे ए रमणी दूबळी अने फिक्की थई गई छे, जेवी सूर्यकिरणे छवायेली चंद्रलेखा । (६.१०२)
आनंद सुधारस पमाडतो ए दिवस क्यारे आवशे, ज्यारे मारा नयनचकोर प्रियनी मुखचंद्रिका वडे पारणुं करशे ? (६.१२७)
हे मन्मथ, अतिसुंदर मारा वालमे तारो रूपगर्व भाग्यो तेथी तुं मने तेनी विरहवेळाए शा माटे त्रास आपे छे ? ( )
दिनप्रतिदिन आंगळीओ वती प्रवासदिवस गणती आ रमणी जाणे के वालमर्नु आकर्षण साधवा एकचित्ते मंत्राक्षरनो जप करी रही छे । (४.३१) (प्राकृत)
ए विरहिणी मुग्धा बोलती नथी । एनुं कारण मने एम लागे छे के कलहंसना जेवो पोतानो कंठ मधुर होई, तेने कोयलनो पंचम सूर सांभळवानो डर छे; दर्पणमा मुख जोती नथी, कारणके पोते चंद्रवदना होई, चंद्रनुं दर्शन ते सही शकती नथी; कामदेवने वेरी मानीने ए क्षणे क्षणे त्रास पामे छे. तेम छतां अचरज ए छे के, हे रूपनिधि कामदेव, ए तारां दर्शन झंखी रही छे। (४.१२९) मिलन :
पुलकावलिना जवथी अने हास्यना श्वेतकुसुमथी रमणीए वालमनो मांगलिक सत्कार कर्यो । (६.२७) अन्योक्ति :
भलेने परम सुगंधी पाटला खीले, भलेने खीचोखीच माधवी मघमघे, भलेने नवमालिकाना दलेदल ऊघडे, भलेने मल्लिका फूलभारे लची पडे, भलेने सरोवर, तळाव, तळावडी अने वावमां कमळो विकसे । तो पण चमेलीना सहज गुणोना स्मरणमां तल्लीन बनेला भ्रमरना चित्तनो कदी ध्यानभंग थाय खरो? (४.१३५) ।
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