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भटकते रहना पडता है । सेवा - प्रसाधना में तो कवि दैन्य देखते हैं । ( १९.४-८) इस प्रशस्तिमूलक काव्य में भी कवि की दृष्टि व्यक्तिपरक नहीं, तत्त्वपरक या गुणपरक है, इस बात का यह संकेत है । कवि वीतरागदेव को बिनति करते हैं कि मेरी प्रसन्नतासे तुम्हारी प्रसन्नता और तुम्हारी प्रसन्नता से मेरी प्रसन्नता इस अन्योन्य आश्रयता को नष्ट कर दो” (१०.१) इस में भी आत्मनिष्ठता की एक अनूठी भूमिका प्रस्तुत हुई है।
ये विचार कवि की अभिलाषाओं को, उनके जीवनलक्ष्य को प्रतिबिंबित करते हैं; अतः वे कविसंवेदन का अंश बनते हैं, भावरूप बनते हैं ।
इस रचनाकी रससृष्टि एवं भावसृष्टि में कवि की हृदयसंपत्ति छलकती है, लेकिन वह हमारे लिये हृदय बनती है अपनी काव्यकला से, अपने अभिव्यक्तिकौशल से । इस अभिव्यक्तिकौशल के दो अंग हैं - अलंकार रचनाएं और अन्य कुछ उक्तिवैचित्र्य । विरोधमूलक अलंकारों के उदाहरण आगे दिये गये हैं । तदुपरांत सादश्यमूलक अलंकारों का भी यहाँ प्रचुरमात्रा में विनियोग किया गया है । शब्दालंकार है तथा एक साथ एक से अधिक अलंकारों का गुम्फन भी किया गया है । अंगांगिभाव से या मालारूप से प्रयुक्त रूपकादि हैं और अलंकार रचना की अन्य कई विदग्धताएं भी हैं । काव्य का यह प्रसिद्ध उपकरण कवि को कितना कुछ हस्तगत है इस बात से हमें अवगत कराता है । कवि की अलंकार रचना का वैभव उपभोग करने योग्य है ।
कुछ लाक्षणिक उदाहरण देखें । त्वय्यादर्शतलालीनप्रतिमाप्रतिरूपके ।
क्षरत्स्वेदविलीनत्व - कथाऽपि वपुषः कुतः ॥ २.४
यहाँ वीतरागदेवकी तुलना दर्पण में पडे हुए प्रतिबिंब से की गई है - उनके शरीर से प्रस्वेद नहीं निकलता इस लिये यह उपमा अरूढ एवं ताजगीपूर्ण है ।
शब्दरूपरसस्पर्शगन्धारव्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न त्वदग्रे तार्किका इव ।। ४.८
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