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शब्दादि पाँच इन्द्रियविषयों की यहाँ तार्किकों के साथ तुलना की गई है दोनों वीतरागदेव को प्रतिकूल हो इस प्रकारका वर्तन नहीं करते, उन्हें वश होकर रहते हैं । सामान्यरूप से उपमा में उपमान अप्रस्तुत होता है, लेकिन यहाँ 'तार्किका' उपमान अप्रस्तुत नहीं है, क्योंकि तार्किक वादी (बौद्ध सांख्य, नैयायिक, मीमांसक, चार्वाक ये पाँच) भी वस्तुतः वीतरागदेव के वश में हैं । इस सादृश्यरचना की यह विलक्षणता है।
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निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं मरौ शाखी हिमे शिखी । कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं त्वत्पादाब्जरजः कणः ।। ९.६
दुष्प्राप्य ऐसी वीतरागदेव की शरण ( उनके पैरों की रजकण ) कलियुग में प्राप्त हुई है इसके लिये यहाँ चार दृष्टान्तों की योजना की गई है रात को दीया, सागर के बीच में द्वीप, मरुभूमि में वृक्ष और शीत में अग्नि । इस प्रकार यह दृष्टान्तमाला का उदाहरण हुआ । अप्राप्य की प्राप्ति का भाव विविध चित्रों से मूर्त होकर घुटाता है । मेरुस्तृणीकृतो मोहात्पयोधिर्गोष्पदीकृतः ।
गरिष्ठेभ्यो गरिष्ठो यैः पाप्मभिस्त्वमपोहितः || १५.२
“महानों मे भी महान् ऐसे तुम्हारी जिन पापीओं ने अवज्ञा की है उन लोगों ने मेरु को तृणवत् और सागर को गोष्पद समान किया है ।" यहाँ भी दो तुलनाएं हैं तथा सघन वाक्यरचना से व्यक्त की गई है । वीतरागदेव का मेरु और सागर के साथ साम्य सूचित किया गया है उस में उनकी उच्चता एवं विशालता के संकेत पाये जाते हैं इस बात की ओर दुर्लक्ष नहीं होना चाहिये ।
मन्दारदामवनित्यम् अवासितसुगन्धिनि ।
तवाङ्गे भृङ्गतां यान्ति नेत्राणि सुरयोषिताम् ।। २.२
यहाँ दो अलंकार परस्पराश्रित रूप से प्रयुक्त किये गये हैं वीतरागदेव के अंग मन्दारमाला के समान नित्य तथा अवासितरूप से सुगंधी हैं (उपमा) और देवांगनाओं के नेत्र वहाँ भौंरे के रूप में मंडराते हैं (रूपक) । रूपक की रचना रूढिगत नहीं है यह बात ध्यान खींचती है ।
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