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________________ कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत्। कर्मजन्ये च वैचित्र्ये किमनेन शिखण्डिना ।। ७.५ ईश्वर ने अगर लीला रूप में ही जगत का सर्जन किया हो तो .. वह बालक के समान रागी ठहरते हैं और उन्हों ने कृपा से जगत का सर्जन किया हो तो जगत सुखी होना चाहिये । लेकिन जगत तो आधि-व्याधि-उपाधि से घीरा हुआ है । इस में ईश्वर की कृपालुता कहाँ दिखाई देती है ? ईश्वर यदि कर्म की अपेक्षा रखते हैं, जीवों को कर्मानुसार फल देते हैं तो उनकी स्वतन्त्रता कहां है ? वे तो हम जैसे ही बन गये और जगत का वैचित्र्य यदि कर्म का परिणामरूप है तो नपुंसक जैसे ईश्वर की आवश्यकता ही क्या है ? आठवें प्रकाश में एकान्तवाद का खण्डन करके अनेकान्तवाद की स्थापना की है उसमें तो केवल शास्त्रबुद्धि का प्रवर्तन है । यह सारा खण्डन-मण्डन-व्यापार स्तवन के भावकाव्य का स्वरूप लप्त करके उसे मानों शास्त्र के प्रदेश में ले जाता है । तर्क एक संचारिभाव है लेकिन वह तो कविबुद्धिजन्य तर्क, शास्त्रबुद्धिजन्य तर्क नहीं | विचार भी रसनीय बन सकता है, भावपोषक बन सकता है किन्तु इस प्रकार का दार्शनिक खण्डन-मण्डन ओक अलग ही वस्तु है | यह स्तवनकाव्य, बहुधा एक आस्वाद्य प्रशस्तिमूलक भावोत्कट रचना है, उस में इस प्रकार की खण्डन-मण्डन वृत्ति अलग पड जाती है और यह केवल कवि की रचना नहीं है, एक सांप्रदायिक आचार्य की रचना है इस बात का स्मरण कराती है। काव्य के मूल वस्तु से स्फुटित होनेवाले, उसे उपकारक बनानेवाले विचार भी यहाँ हमें मिलते ही हैं। कई विचार तो उनकी नूतनता से हमें आकर्षित करते हैं । जैसे कि, कवि कामराग और स्नेहराग से भी दृष्टिराग को अर्थात् मतानुराग को दुर्निवार मानते हैं | 'पापी' कहकर उनके प्रति घृणा व्यक्त करते हैं । (६-१०) वीतरागदेव की सेवा से उनकी आज्ञा के पालन को वे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं | उनकी आज्ञा माने कर्मबंध करनेवाले कषायादि का त्याग और कर्मबंध का निवारण करनेवाले सम्यक्त्वादि का पालन | आज्ञापालन ही आत्मकल्याण करता है और आज्ञाका पालन न करने से संसार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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