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________________ मनोभाव के आलेखन में भक्ति रस की सामग्री है । मानों रसों के पुनित त्रिवेणीसंगम की यहाँ रचना हुई है। . कवि ने इस काव्य में अपना भक्तिभाव प्रवाहित किया है, वैसे भक्ति की महिमा का गान भी किया है । एक पूरे प्रकाश (नवम) में कलिकाल की प्रशंसा की गई है वह वस्तुतः भक्ति का महिमागान है | कलियुग में सहजप्राप्य है भक्ति और कलियुग में भक्ति सत्वर फल देनेवाली है । इसी लिये कलियुग की महिमा है । एक ओर से यह व्याजस्तुति है क्योंकि दुःखार्त मनुष्य भक्ति की ओर सहजरूप से मुड़ता है और कलि दुःखभरा काल (दुषमकाल) है, बहुत दोषों से भरा है और 'वामकेलि' (उलटी क्रिया करनेवाला, अनिष्टकारी) है | व्याजस्तुति हमेशा चातुर्य से उपजती है और यहाँ हम चातुर्य के एक विशेष रस का आस्वाद करते हैं । ऐसे कलिकाल को वह वीतरागदर्शन कराता है, इसी लिये कवि कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार करते हैं इसमें कविहृदय की आर्द्रता प्रकट होती है तथा कलिकथा के साथ कविकथा जुड़ जाती है। . आचार्यश्री ने मात्र कविचातुर्य का ही विनियोग किया है ऐसा नहीं, उन्हों ने अपनी तर्कपटुता भी प्रदर्शित की है। जैसे कि वे कहते हैं “विपक्ष अगर विरक्त है तो वह तू ही है और वह रागवान् है तो विपक्ष नहीं ।” (६.३) 'विरक्त' और 'रागवान्' के संकेतों को बदलकर कविने यहाँ युक्ति की है यह बात स्पष्ट है । विपक्ष वीतरागदेव प्रति विरक्त हो, उसे उनके प्रति राग न हो तो उसमें उन्होंने सर्वसामान्य विरक्तता का आरोपण किया और इस लिये विपक्ष को वीतरागदेव के स्थान पर रखा तथा 'रागवान्' शब्द को वीतरागदेव के अनुरागी के अर्थ में लेकर उसके विपक्षत्व का निरसन कर दिया। ईश्वर जगत्कर्ता है ऐसे मत का कविने सातवें प्रकाश में खंडन किया है उस में भी उनकी तर्कपटुता का हम अनुभव करते हैं । (अलबत्त, ये सारे परंपरागत तर्क हैं) क्रीडया चेत्प्रवर्तेत रागवान्स्यात् कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि सुख्येव सकलं सृजेत् ।। ७.३ १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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