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________________ "तुम्हारे मुख के प्रति आसक्त मेरी आँखें हर्षजन्य अश्रु प्रवाह से - न देखने योग्य वस्तु को देखने से उत्पन्न मल को क्षण में धो डालें।" . अपना सर्वस्व वीतरागदेव की प्रीति-सेवाभक्ति - अर्थ हो ऐसी कामना करके कवि सर्वसमर्पणभाव में लीन होते हैं : त्वदास्यविलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ। त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे भूयास्तां सर्वदा मम । २०.६ "मेरे नेत्र हमेशा आपके मुख में रमण करें, हाथ आपकी उपासना - सेवा करें, कान आपके गुणों का श्रवण करें ।" और शुद्ध शरणागति को मूर्त करनेवाला यह चित्र देखिये : “तुम्हारे पैर में लोटते हुए मेरे मस्तक पर, पुण्य के परमाणु समान तुम्हारे पैर की रज चिरकाल वास करे ।” (२०.१) किन्तु शरणागति की - समर्पणभाव की पराकाष्ठा तो इस श्लोक में है : तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व नाथ ! नातः परं ब्रुवे ।। २०.८ 'प्रेष्य', 'दास', 'सेवक', 'किंकर' इन पर्यायवाची शब्दों से शरणागति का - समर्पण का भाव मानो सघन होता हो ऐसा अनुभव होता है | पर्यायशब्दोंकी अलग अलग अर्थच्छायाएँ सेवकभाव का विस्तार बताकर सर्वांगी शरणागति का सूचन करती है - 'प्रेष्य' माने बाहर आनेजाने वाला नौकर; 'दास' माने गुलाम; क्षुद्र पुरुष, 'सेवक' माने अंगसेवा करनेवाला; 'किंकर' माने क्या करूँ ऐसा पूछता रहता आदमी, सिर्फ आज्ञापालक हूँ ! इस शरणागति को 'अस्तु' कहकर स्वीकार कर लेने के लिये कवि वीतरागदेव को बिनति करते हैं और “इससे अधिक मैं कुछ कहता नहीं हूं" इन शब्दों से अपने प्रयत्नों की अवधि दिखाते हैं, और अपनी कथा समाप्त करते हैं । निःशंक यह कृति वीतरागकथा है और साथ में वह कविकथा भी है । वीतरागचरित्र में शांत रस की सामग्री है तथा उसके महिमानिरूपण में अद्भुत रस की सामग्री है तो कविकथा में कवि के १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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