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________________ शंकर की गोद में पार्वती), वीतरागदेव किसी अंगना की देह का आलिंगन करने को तत्पर नहीं होते । अन्य देव अपने निंद्य चरित्र से महाजनों को कंपित करनेवाले या प्रकोप-प्रसाद इत्यादि से नरों की एवं देवों की विडंबना करनेवाले होते हैं, वीतरागदेव में ऐसा कुछ नहीं है। और देव जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश के कार्यो में रुचि रखते हैं, वीतरागदेव को ऐसी कोई रुचि नहीं है । और देव हास्य-लास्य आदि के संक्षोभ से युक्त स्थिति में रहते हैं, वीतरागदेव ऐसे किसी संक्षोभ से रहित शांत मूर्ति हैं | ऐसे वीतरागदेव का देवत्व ही कैसे होगा, यह प्रश्न अवश्य उपस्थित होता है, लेकिन आचार्यश्री दृष्टांत देते हैं कि प्रवाह के साथ बहते हुए पर्ण, तृण, काष्ठ आदि की बात बुद्धिगम्य है, लेकिन प्रवाह के प्रतिकूल बहती हुई वस्तु कैसे प्रतीत हो ? (१८.७) तात्पर्य यह है कि वीतरागदेव का देवत्व लौकिक बुद्धि से ग्राह्य नहीं । उनके चरित्र की निरुपाधिकता ही उनकी विशेषता है, विलक्षणता है, अनन्यता है । यह विलक्षणदेवत्व हमारे में अहोभाव जागृत करता है, हमारे हृदय को विस्मय से भर देता है । इस प्रकार शांत एवं अद्भुत का संयुक्त अनुभव होता है। उद्धृत पंक्तियों में भाषाभिव्यक्ति की जिस कला का आविर्भाव हुआ है वह भी रसपोषक है । 'न' से शुरू होनेवाले वाक्यों की छटा, समासबहल पदावली की घनता तथा सर्वत्र सनाई देनेवाले वर्णानुप्रास का रणझणकार (१८.२ में 'ह' तथा 'त्र', १८.३ में 'ङ्ग', १९.५ में 'स्य' और 'प्ल' के आवर्तन देखिये) भाषाभिव्यक्ति को वैचित्र्यशोभा एवं प्रभावकता प्रदान करता है। वीतरागदेव की अलौकिकता प्रदर्शित करते हुए कविने विरोधाभास, विषम, विशेषोक्ति इन अलंकारों का आश्रय लिया है वह भी कैसा सफल बन पाया है ! लोकव्यवहार में प्रभुत्व - स्वामित्व की निशानी यह है कि किसी को कुछ देना, प्रसन्न होकर उपहार देना तथा किसी का कुछ छीन लेना, दण्ड करना या कर वसूल करना । वीतरागदेव की खूबी यह है कि वे किसी को कुछ देते नहीं, किसी का कुछ छीन नहीं लेते, फिर भी उनका प्रभुत्व - उनका शासन प्रवर्तमान हैं । (१९.४) Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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