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तदुपरांत
अनाहूतसहायस्त्वं त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसंबंधबान्धवः ।। १३.१
सामान्यरूप से किसी को बुलाने पर वह सहायता करने आता है, वह वात्सल्य या प्रीति रखता है तो उसके पीछे कोई कारण होता है, अच्छाई दिखाता है तो हमारी अभ्यर्थना से और बन्धुजन बना रहता है किसी रिश्ते के कारण, लेकिन वीतरागदेव संसार के इन नियमों से, इस लोकनीति से परे हैं । वे बिना बुलाओ ही सहायक होते हैं, निर्व्याज वत्सल हैं, प्रार्थना किये बिना ही वे भलाई करते हैं, बिना किसी रिश्ते के रिश्तेदार हैं, उनके चरित्र की यह लोकविरुद्धता है, अलौकिकता है।
___ कवि कहते हैं, वीतरागदेव की काया बिना धोयी हुई तथापि स्वच्छ (अधौतशुचि, २.१) है, उनके अंग गंध द्रव्यों के उपयोग के बिना भी सुगंधित (अवासित-सुगन्धित २.२) हैं, उनका मन विलेपन किये बिना ही स्निग्ध-मुलायम प्रेमभावयुक्त (१३.२) है तथा उनकी वागभिव्यक्ति बिना मार्जन भी उज्ज्वल (१३.२) है, इससे पता चलता है कि उनका सब कुछ हमारी परिचित लोकस्थिति से कितना अनूठा है । यह अनूठापन हमारे चित्त को विस्मय से भर देता है।
कवि ने वीतरागदेव में परस्पर विरोधी गुणलक्षण प्रदर्शित किये हैं यह घटना उनके अलौकिक स्वरूप को स्फुट करके चमत्कार उत्पन्न करती है | वीतरागदेव में एक ओर से सारे प्राणियों के प्रति उपेक्षा है - उदासीनभाव है, दूसरी ओर से उपकारिता है। (१०.५) एक ओर से निग्रंथता है, तो दूसरी ओर से चक्रवर्तिता है । (१०.६) अलबत्त यह विरोध आभासी विरोध है । उसका निरसन इस प्रकार हो सकता है :
वीतरागदेव में उदासीनता इस अर्थ में है कि वे संसारी जीवों के सुख-दुःख से लिप्त नहीं होते, उनके लिये प्रवृत्त नहीं होते, वे निवृत्तिमार्गी हैं, किन्तु इस संसार में उनका विचरण ही संसारी जीवों के लिये उपकारक बनता है । अपने आचार एवं उपदेश से वे उन्हें
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