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होता है । वस्तुतः ऐसा नहीं है । 'ति' या 'ष्टि', कहीं भी सार्थक है नहीं ।
अतः अपनी मान्यतानुसार 'ष्टि' के वर्जन को भी, इसी न्याय की अनित्यता के ज्ञापक रूप में नहीं मानना चाहिए ।
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
यदि हम एक दूसरी मान्यता को स्वीकार करें कि सिद्धहेम की परम्परा में 'उणादि भिन्न' सूत्र से जो शब्द की सिद्धि होती है, उसमें निपातन भी आ जाता है और ऐसे निपातित शब्दों को व्युत्पन्न मानने पर 'ति' सार्थक होता है, तथा श्रीहेमहंसगणि ने बताया उसी प्रकार से 'इति' ग्रहण व्यर्थ होकर, इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता है, किन्तु पुनः यही प्रश्न उपस्थित होता है कि 'त्यन्त' के वर्जन से सार्थक और अनर्थक दोनों 'ति' का वर्जन होता है तो 'ट्यन्त' का पृथग्वर्जन क्यों किया ?
इस प्रकार 'सङ्ख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः ' ६/४/१३० किसी भी प्रकार से प्रस्तुत न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करने में समर्थ नहीं है ।
कदाचित् 'ष्ट्यन्त' वर्जन से 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय की अनित्यता का ज्ञापन हो सकता है । वह इस प्रकार है-:
' षष्' शब्द से 'षष्टि' शब्द का निपातन करते समय 'षष्' से 'ति' प्रत्यय होता है और 'तवर्गस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गी' १ / ३ / ६० सूत्र से 'ति' का 'टि' हो जाता है अतः 'त्यन्त' के वर्जन से ही 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' - न्याय से 'ष्ट्यन्त' का वर्जन हो ही जाता है, अत: इसी सूत्र में 'ष्टयन्त' का वर्जन व्यर्थ होकर, ज्ञापित करता है कि 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय अनित्य है ।
॥१५॥ लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् ॥
'लाक्षणिक' और 'प्रतिपदोक्त' दोनों का ग्रहण संभव हो तो 'प्रतिपदोक्त' का ही ग्रहण करना ।
यहाँ 'सम्भवतो:' पद अध्याहार है । इस प्रकार आगे यथायोग्य पद अध्याहार समझ लेना । 'लक्ष्यतेऽनेन इति लक्षणं, लिङ्गम् ।' जिस के द्वारा लक्षण किया जाता है वह 'लक्षण' या 'लिङ्ग', 'चिह्न' । वही 'लिङ्ग' या 'चिह्न' के द्वारा जो विधि कही जाय, वही विधि भी उपचार से 'लक्षण' या 'लाक्षणिक विधि कही जाती है, और प्रत्येक पद का विधान करके, उसी पद के लिए कथित विधि 'प्रतिपदोक्त' विधि कही जाती है ।
यहाँ सूत्र में 'लक्षण' और 'प्रतिपदोक्त' दोनों का द्वन्द्व समास है । जो कार्य सामान्यतया 'लिङ्ग' मात्र का निर्देश करके कहा गया हो, वह कार्य 'लक्षण' कहा जाता है । 'लक्षणेन चरति ' - वाक्य में 'चरति' ६/४/११ सूत्र से 'इकण्' होगा और 'लाक्षणिक' बनेगा । इसी कार्य को 'लाक्षणिक' कार्य भी कहा जाता है । और जो कार्य 'नाम' ग्रहणपूर्वक बताया गया हो, वह 'प्रतिपदोक्त' कहा जाता है ।
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