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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४)
४५ है। अतः स्वार्थ में होनेवाले 'क' प्रत्यय का कोई अर्थ मालूम नहीं देता है । उसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि 'क' आदि की 'प्रत्यय' रूप अन्वर्थक 'महासंज्ञा' करने से 'प्रकृति' का जो अर्थ है, वही अर्थ 'क' प्रत्यय का भी माना जाता है, अतः प्रत्यय का अर्थ और प्रकृति का अर्थ दोनों समान होने से, दोनों का समुदित अर्थ भी वही होता है ।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक जो श्रीहेमहंसगणि ने बताया है, वह सही नहीं लगता है। उन्हों ने बताया है कि 'डत्यतु सङ्ख्यावत्' १/१/३५ सूत्र से 'डति' प्रत्ययान्त शब्द सङ्ख्यावाचक होंगे, अतः ‘सङ्ख्याडतेश्चा' ६/४/१३० सूत्रगत 'सङ्ख्या ' शब्द से उसका ग्रहण हो जायेगा, तथापि 'डति' का ग्रहण किया, क्योंकि 'ति' अन्तवाले शब्दों के वर्जन से 'डति' सम्बन्धी अनर्थक 'ति' का भी वर्जन हो जायेगा, अतः 'डति' प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण करने के लिए, उसको रखा है। इस प्रकार 'ति' को उन्होंने सार्थक माना है और 'डति' के 'ति' को अनर्थक माना है, अत: 'ति' के वर्जन से, इस न्याय से 'डति' का वर्जन होता ही नहीं है, इसलिए 'डति' रखने की कोई जरूरत नहीं थी, अत एव वही 'डति' ग्रहण व्यर्थ होकर, इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता है ।
किन्तु बहुत विचार करने पर, उनकी यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती है। उन्होनें 'ति' को सार्थक माना है किन्तु वह सार्थक नहीं है; अनर्थक है; अतः 'ति' अन्तवाले शब्दों के वर्जन से 'डति' अन्तवाले शब्दों का वर्जन हो ही जाता है, इस लिए 'डति' प्रत्ययान्त शब्दों को 'क' प्रत्यय करने के लिए सूत्र में 'डति' का ग्रहण आवश्यक है, अतः वह सार्थक है । वस्तुत: 'ति' प्रत्ययान्त शब्दों का वर्जन नहीं है, किन्तु 'ति' अन्तवाले शब्दों का वर्जन किया गया है । यहाँ सिद्धहेम में और अन्य व्याकरण परम्परा में भी 'विंशति' आदि शब्दों को अव्युत्पन्न माने गये हैं, अत: 'ति' प्रत्यय है ही नहीं । यदि उसका 'उणादि' से भिन्न अन्य किसी सूत्र से विधान करके, 'ति' प्रत्यय किया होता और शब्दसिद्धि की गई होती तो, उसे 'ति' प्रत्यय कहा जा सकता, किन्तु यहाँ सिद्धहेम में उसे निपातन से सिद्ध किया है । इस प्रकार सिद्ध होता है कि 'ति' अनर्थक ही है।
यदि ऐसा मान लिया जाय कि 'डति' ग्रहण से, इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन होता है, तो 'ष्टि' अन्तवाले शब्द का वर्जन यहाँ सार्थक नहीं होता है । जबकि “ष्टि' अन्तवाले शब्द के वर्जन को ज्ञापक मानने पर, ऊपर बताया उसी तरह ‘डति' का ग्रहण सार्थक ही है, अत: 'सङ्ख्याडतेश्चात्तिष्टेः कः' ६/४/१३० सूत्रगत 'ष्टि' के वर्जन को ज्ञापक मानना चाहिए ऐसा तर्क आ. श्रीलावण्यसूरिजी करते हैं किन्तु दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'ति' अनर्थक है और 'षष्टि' का ‘ष्टि' (टि) भी अनर्थक ही है, अत: 'त्यन्त' के वर्जन से 'ष्ट्यन्त' का वर्जन हो ही जाता था, तो 'ट्यन्त' वर्जन पृथग क्यों किया ? प्रस्तुत न्याय कहता है कि 'अर्थवान् का ग्रहण हो वहाँ अनर्थक का ग्रहण नहीं होता है' यदि इस न्याय को अनित्य मानें तो, ऐसा बताना चाहिए कि 'अर्थवान् के ग्रहण से अनर्थक का भी ग्रहण हो जाता है। यहाँ तो 'ति' और 'ष्टि' दोनों अनर्थक ही हैं। यदि "ष्टि' के वर्जन को ज्ञापक मानें तो ऐसा मानना पड़े कि अनर्थक के ग्रहण से सार्थक का भी ग्रहण
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