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________________ ४७ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १५)' जब 'लाक्षणिक' और 'प्रतिपदोक्त' दोनों का ग्रहण संभव हो तब 'प्रतिपदोक्त' का ही ग्रहण करना किन्तु 'लाक्षणिक' का ग्रहण नहीं करना । जैसे 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च पूर्वस्याऽधुट्परे' १/३/८ यहाँ 'लाक्षणिक नकार' का ग्रहण नहीं करने से त्वन्तत्र' इत्यादि प्रयोग में 'न्' का 'स्' नहीं होगा क्योंकि यह 'न्', 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ से अनुनासिक के रूप में सामान्यतया हुआ है । घास आदि से आच्छादित भूमि में 'ककुद्' (खांध) को देखकर ही यहाँ बैल होगा, ऐसा अनुमान/निश्चय होता है, इस प्रकार यहाँ बाद में आये हुए तकार को देखकर तकार के वर्ग का ही अनुनासिक नकार यहाँ आया हुआ दिखाई पडता है । अतः इस युक्ति से 'लक्षणाद्- चिह्नादागतो लाक्षणिकः' व्याख्यानुसार यहाँ 'लाक्षणिक न' है। जबकि इसी सूत्र से प्रतिपदोक्त' 'न्' का ही 'स्' होता है । जैसे-भवाँस्तत्र', यहाँ न्, 'नोऽन्तः' इसी प्रकार नकार के ही विधान द्वारा हुआ है, अत: वह 'प्रतिपदोक्त' है। 'एकार्थं चानेकं च' ३/१/२२ सूत्र से बहुव्रीहि समास सिद्ध होने पर भी 'आसन्नादूराधिकाऽध्यर्द्धा दिपूरणं द्वितीयाद्यन्यार्थे ' ३/१/२० इत्यादि सूत्र से प्रतिपदोक्त बहुव्रीहि का विधान, इस न्याय का ज्ञापक है । 'प्रमाणीसङ्ख्याड्डः' ७/३/१२८ सूत्र से जो 'ड' समासान्त करना है, वह 'आसन्नादूराधिका'-३/१/२० सूत्र में कथित समास से ही होता है, अतः 'आसन्ना दश येषां ते आसन्नदशा:' आदि प्रयोग में 'ड' समासान्त होगा किन्त 'एकार्थं चानेकं च ३/१/२२ सत्र द्वारा निष्पन्न बहुव्रीहि समास से 'ड' समासान्त नहीं होगा । उदा. 'प्रिया दश येषां ते प्रियदशानः ।' यह न्याय अविश्वास्य/अनित्य होने से 'इस्वस्य गुणः' १/४/४१ सूत्र में प्रतिपदोक्त हुस्व स्वर के साथ लाक्षणिक हुस्व स्वर भी ग्रहण किया है। उदा. 'हे कर्तः, हे निष्कौशाम्बे' यहाँ 'कर्तृ' का 'तृ' 'णकतृचौ' ५/१/४८ सूत्र से आया है और सूत्र में 'तृ' रूप द्वारा ही विधान किया है, अतः वह 'प्रतिपदोक्त' है। जबकि 'निर्गतः कौशाम्ब्याः निष्कौशाम्बिः' में स्थित 'इ' लाक्षणिक है क्योंकि 'गोश्चान्ते'- २/४/९६ से सामान्यतया हुस्व करने का विधान है, अत: 'कौशाम्बी' में दीर्घ 'ईकार' स्थानी होने से, उसके स्थान में, उसका आसन्न हुस्व 'इ' होगा। इस प्रकार लक्षण' अर्थात् 'चिह्न' से कथित होने से वह लाक्षणिक है। इस न्याय के उदाहरण में क्वचित् व्याकरण से कथित निष्पन्न को लाक्षणिक और अव्यत्पन्न को प्रतिपदोक्त कहे गये हैं । उदा. 'हन्' के 'शस्तनी' अन्यदर्थ, एकवचन में 'अहन्' रूप होता है । इसके 'न्' का 'अह्नः' २/१/७४ से 'रु' नहीं होगा क्योंकि वह 'लाक्षणिक' है. किन्त दिन अर्थवाले 'अहन' शब्द के 'न' का 'रु' होगा क्योंकि वह 'प्रतिपदोक्त' है। 'अहन्' का 'लाक्षणिकत्व' और 'अहन्' (दिवा) का 'प्रतिपदोक्तत्व' इस प्रकार है। प्रथम 'अहन' में 'हन' धात है. उसे सामान्य से शस्तनी. अद्यतनी और क्रियातिपत्ति में 'अड आगम' करने का विधान है, और 'हन्' धातु को शस्तनी का प्रत्यय हुआ है, अतः 'अड्' आगम हुआ है। सामान्य से व्यञ्जनान्त धातु से 'दिव्' प्रत्यय का लोप होता है । यहाँ 'हन्' धातु व्यञ्जनान्त होने से 'दिव्' प्रत्यय का लोप होगा । इस प्रकार त्याद्यन्त' अहन् शब्द लाक्षणिक है। जबकि 'दिन' अर्थयुक्त, 'अहन्' शब्द 'उणादि' है और उणादि सूत्र ‘श्वन्मातरि-' ( उणा- ९०२) में नाम ग्रहण करके कहा गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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