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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) न्याय का उपयोग नहीं हो सकता है, अत: वहाँ 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ परिभाषा का उपयोग होता है और जहाँ इस न्याय और 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ परिभाषा की प्रवृत्ति का अवकाश/संभव न हो वहाँ 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ॥८॥ न्याय की प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार दोनों न्याय और परिभाषा का विषय (प्रदेश ) हो ऐसा लगता है।
___ यह न्याय परिभाषा के क्षेत्र में सब से प्राचीन माने जाते व्याडिकृत परिभाषासूचन को छोडकर सर्वत्र उपलब्ध है । दुर्गसिंहकृत कातन्त्र परिभाषावृत्ति में 'न संप्रसारणे संप्रसारणम्' (का. ३/४/९३) सूत्र को इस न्यायका ज्ञापक बताया है, वैसे यहाँ न्यायसंग्रह में भी 'य्वृत्सकृत्' ४/१/ १०२ सूत्र को इस न्याय का ज्ञापक माना जा सकता है।
॥८॥ भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः ॥ जिसका स्वरूप वर्तमान में बदला हुआ है, ऐसे शब्द या धातु को, उपचार से पूर्व के स्वरूपयुक्त मानकर कार्य होता है ।
जो पूर्व में वैसे स्वरूपयुक्त था, किन्तु वर्तमान में उसका स्वरूप बदल जाने पर भी उपचार से पूर्वावस्था के स्वरूपयुक्त मानकर व्यवहार करना चाहिए । उदा. जैसे शस्तनी के 'दिव्' प्रत्यय पर में आने के बाद ‘प्रण्यहन्' आदि रूप होते हैं, वैसे, साक्षात् 'हन्' की उपस्थिति की तरह ही अद्यतनी में 'प्रण्यवधीद्' आदि में, 'हन्' के आदेश स्वरूप 'वध' में भी 'हन्' का स्वरूप माना गया है, और वही 'वध' पर में आने से, 'नेमादापतपद'-२/३/७९ सूत्र से 'नि' के 'न' का 'णत्व' सिद्ध किया गया है । इसका ज्ञापक 'नेङ्र्मादापतपद'-२/३/७९ सूत्र में 'वध' धातु की अनुपस्थिति ही है। 'प्रणिहन्ति' आदि प्रयोग की भाँति 'प्रण्यवधीद्' आदि प्रयोग में भी 'नि' के 'न' का ‘णत्व' इष्ट ही है। अतः 'हन्' की तरह वध' का पाठ सूत्र में करना आवश्यक है, तथापि इसी सूत्र में वध' का पाठ नहीं किया है। इससे ज्ञापित होता है कि इस न्याय से वध' धातु में ही भूतपूर्व 'हन्' धातु के स्वरूप का उपचार करने से, 'नेङ्र्मादापतपद-२/३/७९ सूत्र से ही 'नि' का ‘णत्व' सिद्ध होने वाला ही है । यही तात्पर्य है।
यह न्याय कदाचित् उदासीन हो जाता है अर्थात् वह अनित्य है । अत: 'विज्ञपय्य' इत्यादि प्रयोग में 'मारण तोषण निशाने ज्ञश्च' ४/२/३० सूत्र से जिस 'ज्ञापि' का 'ज्ञपि' हुआ है, उसी 'ज्ञपि' में भूतपूर्व 'ज्ञापि' रूप का उपचार नहीं करने पर 'लघोर्यपि' ४/३/८६ सूत्र से, लघूपान्त्य धातुलक्षण ‘णि' का 'अय्' आदेश होता है । इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'सङ्ख्यानां र्णाम्' १/४/३३ सूत्र में ' म्' में आया हुआ बहुवचन है क्योंकि 'अष्टानाम्' प्रयोग में पर सूत्र 'वाऽष्टन
आ: स्यादौ १/४/५२ से. प्रथम 'अष्टन' के 'न' का आ होगा। बाद में नकारान्त 'अपन' शब्द मिलता नहीं है, अतः भूतपूर्व नकारान्त संख्यावाचक शब्द से पर आये हुए 'आम्' का भी 'नाम' आदेश होता है, उस बात को ज्ञापित करने के लिए 'म्' में बहुवचन प्रयुक्त है। यदि यह न्याय
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