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________________ प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ७) २५ यदि विकृत पद का अर्थ श्रीलावण्यसूरिजी के निर्देशानुसार विकारापन्न वैसदृश्य लेने पर, श्रीहेमहंसगणि द्वारा निर्दिष्ट अनित्यता का उदाहरण "जैसे 'सूर' शब्द से 'मर्त्तादिभ्यो यः' ७/२/१५९ से स्वार्थ में 'य' प्रत्यय हो कर 'सूर्य' शब्द बनता है, वेसे 'शूर' शब्द से भी स्वार्थ में 'य' प्रत्यय हो कर 'शूर्य' शब्द बनता नहीं है।" उपयुक्त लगता नहीं है क्योंकि यहाँ 'सूर' शब्द और 'शूर' समान अर्थवाले होने पर भी भिन्न प्रकृति स्वरूप है । अतः इस न्याय से, 'सूर' शब्द द्वारा 'शूर' शब्द का ग्रहण हो सकता नहीं है। यहाँ 'विकृत' पद का अर्थ केवल वैसदृश्य लेने पर, यही उदाहरण उपयुक्त लगता है। इस उदाहरण के स्थान पर आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने 'अभीयात्' को अनित्यता का उदाहरण स्वरूप बताया है। यहाँ 'अभि + ईयात्' है । सन्धि करने के बाद 'अभीयात्' होता है, और इस प्रकार सन्धि होने के बाद 'आशिषीणः' ४/३/१०७ से ह्रस्व नहीं होता है। यदि यह न्याय नित्य होता तो, 'अभीयात्' को अलग किया जायेगा तो 'अभ् + ईयात्' होगा और अभ्' , एकदेशविकृत होने से उसके उपसर्गत्व के कारण, 'ईयात्' का ई हस्व होता । और यह न्याय लोकसिद्ध होने से ज्ञापक की अपेक्षा नहीं है । अत एव इस न्याय से केवल 'सख्युः' कहने से, सखी शब्द का भी ग्रहण हो सकता था, इसे रोकने के लिए 'इतः' कहना ज़रूरी है । इस प्रकार 'सख्युरितोऽशावैत्' १/४/६३ सूत्र का 'इत:' पद सार्थक भी है और श्रीहेमहंसगणि ने बताया उसी प्रकार से, इस न्याय का ज्ञापन करने में भी वह समर्थ है। जहाँ प्रकृति रूप शब्द या धातु में आधा या आधे से भी अधिक अंश में विकृति पैदा हुई हो ऐसे शब्दों में इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि मूल प्रकृति का बोध-करानेवाले बहुत से अवयव विकृत हो जाने से मूल शब्द/प्रकृति का ज्ञान नहीं होता है । ऐसे स्थानों में स्थानिवद्भाव से निर्वाह करना चाहिए। और विकृत अवयव सम्बन्धी कार्य करना हो, तब भी इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि 'छिन्नपुच्छ श्वा' में 'श्वत्व' तो होता ही है, अतः 'श्वत्ववान्' का व्यवहार होता है किन्तु पुच्छ रहित होने से 'पुच्छवान्' का व्यवहार नहीं होता है । इस प्रकार 'राजकीय' इत्यादि प्रयोग में अन्त्य न कार का लोप होने के बाद, वही 'राजन्' शब्द 'नान्तत्ववान्' नहीं माना जाता है, किन्तु 'नान्तत्व' रहित ही माना जाता है । अत एव 'नान्तत्व' के कारण होनेवाला, 'अ' का लोप 'अनोऽस्य' २/१/ १०८ से नहीं होता है। दूसरी एक आशंका यही होती है कि इस न्याय का स्वीकार करने पर स्थानिवद्भावविधायक परिभाषा सूत्र 'स्थानीवाऽवर्णविधौ' ७/४/१०९ व्यर्थ होगा क्योंकि इस न्याय से ही आदेश रूप विकार होने पर भी, स्थानिवद्भावबुद्धि से कार्य का संभव है। किन्तु ऐसा नहीं है । जहाँ आधा या आधे से अधिक अंश में विकृति हो और मूल शब्द की प्रतीति न हो सकती हो, ऐसे स्थानों में इस १. यहाँ श्रीलावण्यसूरिजीने 'सूर' और 'शूर' को समानार्थक किस आधार पर बताया है, यह स्पष्ट नहीं होता है। सामान्यतया 'सूर' का अर्थ 'सूर्य' और 'शूर' का अर्थ 'शूरवीर' 'प्रराक्रमयुक्त' होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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