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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय से ही यहाँ निर्वाह हो जायेगा, तो यह न्याय निर्विषय ही हो जायेगा, अत एव हमने ( श्रीहेमहंसगणि ने ) “विकारापन्न' अर्थ छोडकर केवल वैसदृश्य' अर्थ ग्रहण किया है।
आ. श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार के 'वैसदृश्य' अर्थ का स्वीकार नहीं करते हैं और प्रश्न करते हैं कि "क्या आपने बताया उसी प्रकार से, 'अतिजर, निर्जर,' आदि शब्द में 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय लगता नहीं है ?" उसका प्रत्युतर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते है कि 'अतिजरसा कुलेन' प्रयोग भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः' न्याय से भी सिद्ध हो सकता है किन्तु श्रीहेमचन्द्राचार्यजी ने इस प्रयोग की सिद्धि करने के लिए यहाँ 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय का उपयोग किया है, अत एव हमने भी ऐसा किया है।
___ उपर्युक्त बातों से यह ज्ञापित होता है कि 'विकृत' पद से स्वाभाविक वैसदृश्य ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु 'विकारापन्न वैसदृश्य' अर्थ करना । यदि विकारापन्न अर्थ किया जाय तो यहाँ न्यायवृत्ति के उदाहरण 'अतीसारकी, अतिसारकी' बराबर नहीं लगते हैं क्योंकि 'वातातीसारपिशाचात् कश्चान्तः ७/२/६१ सूत्र में दीर्घ ईकारयुक्त 'अतीसार' शब्द कहा है। अतः इस न्याय से 'अतिसार' शब्द का ग्रहण करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि 'अतिसार' शब्द में विकारापन्न वैसदृश्य नहीं है, क्योंकि ‘अतिसार' शब्द की सिद्धि करते समय दीर्घ का ह्रस्व नहीं होता है किन्तु हस्व का दीर्घ होता है । अतः सूत्र में यदि हस्व इकारयुक्त 'अतिसार' शब्द का पाठ किया होता तो, इस न्याय से दीर्घ ईकारयुक्त 'अतीसार' शब्द का ग्रहण हो सकता, किन्तु सूत्रकार आचार्यश्री ने ऐसा नहीं किया है और वृत्ति में भी इसका उदाहरण नहीं दिया । इससे ऐसा अनुमान हो सकता है कि सूत्रकार आचार्यश्री को यह अभिप्रेत नहीं है। इसके समर्थन में श्रीलावण्यसूरिजी ने सिद्धहेम के 'विवधवीवधाद्वा ६/ ४/२५ सूत्र का निर्देश किया है । यहाँ वे कहते हैं कि 'विवध' और 'वीवध', दो में से किसी एक का भी ग्रहण करने से, इस न्याय से अन्य का भी ग्रहण हो सकता था, तथापि दोनों का ग्रहण किया है, उससे ऐसा सूचित होता है कि जहाँ दीर्घ इत्यादि के विकल्प से दो-दो शब्द बनते हैं, वहाँ दोनों शब्दों को भिन्न-भिन्न प्रकृति मानना चाहिए ।
यद्यपि लघुन्यासकार ने 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' कहकर, 'अतिसारकी' उदाहरण दिया है और अमरकोश' तथा अभिधान चिन्तामणि' में भी 'अतिसारकी' शब्द दिया है। अतः श्रीलावण्यसूरिजी का यही अनुमान यहाँ उपयुक्त नहीं लगता है।
यहाँ श्रीहेमहंसगणि के कथन अनुसार केवल वैसदृश्य अर्थ करना ही उपयुक्त लगता है और ऐसा करने पर जहाँ अनिष्ट रूप की आपत्ति आती हो वहाँ 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' न्याय का आश्रय करना चाहिए, ऐसी हमारी अपनी मान्यता है और आ. श्रीलावण्यसूरिजी द्वारा निर्दिष्ट उदाहरण सूत्र 'विवधवीवधाद्वा' ६/४/२५ को इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक मानना चाहिए। .
१. वातकी वातरोगी स्यात्, सातिसारोऽतिसारकी ।। (अमरकोश-पंक्ति/११९२) २. पामनः कच्छरस्तुल्यौ, सातिसारोऽतिसारकी । वातकी वातरोगी स्यात्, श्लेष्मणः श्लेष्मल: कफी ॥३६०॥
(अभिधान चिन्तामणि)
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