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________________ २३ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.७) लुक्' ४/२/४४ से 'अ' का लोप करने के बाद 'हनो ह्रो नः' २/१/११२ से 'ह्न' का 'न' आदेश होने से वह 'अनेकदेशविकृत' होगा, उसका भी अनन्यवद्भाव हुआ है, अत: उसके पर होते हुए 'नेमादापतपदनदगदवपीवहीशमू चिग्याति वाति द्राति प्साति स्यति हन्ति देग्धौ २/३/७९ से 'नि' के 'न' का 'ण' होता है। किन्तु ऐसा न हो और 'हन्' धातु के योग से ही, 'प्रनि' में 'नि' के 'न' का 'ण' सिद्ध किया जाय तो इस न्याय के उपयोग की आवश्यकता ही क्यों रहेगी ? किन्तु 'णषमसत्परे' - २/१/६० सूत्र से 'त्यादि' प्रत्यय की उत्पत्ति रूप पर कार्य होते समय ‘णत्व-शास्त्र' असद्वत् होने के कारण वही सूत्र निर्दिष्ट कार्य यहाँ नहीं होगा । अत एव, इस न्याय की रचना की गई है । इस प्रकार, आगे भी आशंका और इसका समाधान समझ लेना । इस न्याय का ज्ञापक 'सख्युरितोऽशावैत् ' १/४/८३ सूत्र है । इसी सूत्र में 'इत: 'शब्द से 'सखी' शब्द के 'ईकार के 'ऐत्व' का निषेध होता है । यदि 'सख्युरशावैत्' इस प्रकार सूत्ररचना की गई होती तो सूत्र में साक्षात् 'सखि' शब्द के कथन के बावजूद भी, इस न्याय के कारण 'सखि' शब्द के 'इकार' के साथ-साथ 'सखी' शब्द के 'ईकार' का भी 'ऐ' हो जाता । यह न्याय अनित्य/अस्थिर है, उसका ज्ञापक 'सूर' शब्द है । 'सूर' शब्द 'मर्त्तादि' गणपाठ में है, तथापि एकदेशविकृत 'शूर' शब्द को 'मर्त्तादित्व' प्राप्त नहीं होता है । क्योंकि जैसे 'सूर' शब्द से 'मर्त्तादिभ्यो यः' ७/२/१५९ से स्वार्थिक 'य' प्रत्ययान्त 'सूर्य' शब्द होता है, वैसे 'शूर' शब्द से 'शूर्य' शब्द होता नहीं है क्योंकि 'मादित्व' के अभाव में 'य' प्रत्यय भी नहीं होता है । इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'सङ्ख्यार्हदिवाविभानिशा-'५/१/१०२ सूत्रान्तर्गत, 'लिपि' और लिवि' दोनों शब्दों का ग्रहण है । यदि यह न्याय नित्य होता तो, दोनों शब्दों का ग्रहण किसी भी एक शब्द के ग्रहण से हो जाता । इस न्याय में प्रयुक्त 'विकृत' शब्द के बारे में दो विभिन्न मत वैयाकरणों में प्रचलित है। कुछेक केवल 'वैसदृश्य' अर्थ करते हैं, तो कुछेक 'विकार से प्राप्त वैसदृश्य' अर्थ भी करते हैं। तो इन दोनों अर्थ मे से कौन-सा अर्थ यहाँ लेना, यह एक विचित्र प्रश्न है । यहाँ 'विकृत पद' का अर्थ "विसदृश पद' करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यहाँ वैसदृश (विकृतपद) कैसा लेना चाहिए ? स्वाभाविक या विकारापन्न ? यदि स्वाभाविक वैसदृश्य अर्थ लेंगे तो, 'सकृत्' और 'शकृत्', दोनों में परस्पर 'अनन्यत्व' आयेगा, तो, 'शकृत्' के 'शकन्' आदेश के साथ-साथ 'सकृत्' शब्द का भी 'शकन्' आदेश हो जायेगा । अतः इस प्रकार का स्वाभाविक वैसदृश्य अर्थ नहीं किया जा सकेगा। यदि 'विकृत पद' का 'विकारकृत' अर्थ करें तो 'विकारापन्न' अर्थ छोडकर 'वैसदृश्य' अर्थ करने का क्या कारण ? श्रीहेमहंसगणि उसका प्रत्युत्तर देते हुए इस न्याय के न्यास में कहते हैं कि 'ननु विकृतमिति शब्दस्य........ प्रकृतन्यायो निर्विषय एव स्यात्' (पूर्व की न्यायवृत्तियों में 'विकृत' शब्द का अर्थ 'विकारापन्न' किया है, वही अर्थ यहाँ लेना उपयुक्त है तथापि आप यहाँ 'वैसदृश्य' अर्थ क्यों करते हैं ? उसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि 'विकारापन्न' अर्थ करने पर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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