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________________ २२ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) है । 'परावेर्जे:' ३/३/२८ सूत्र में 'जि' का 'जियः' नहीं करने का कारण बताते हुए 'जैनन्द्रपरिभाषावृत्तिकार प्रो. के. वी. अभ्यंकर कहते हैं कि 'प्रकृतिवदिति वत्करणात् केषुचित् स्थलेषु इयं न प्रवर्तते ।' जबकि पुरुषोत्तमदेव कहते हैं कि 'विपराभ्यां जे:' (पा.सू. १/३/९१) में प्रकृतिवद्भाव होने से 'इय्' आदेश होने की प्राप्ति है, किन्तु (सौत्रत्वात् परिहरणीया) 'सौत्रत्व' के कारण नहीं होता है। सीरदेव अपनी परिभाषावृत्ति में कहते हैं कि अनुकरण दो प्रकार के होते हैं, एक सार्थक और दूसरा निरर्थक । इसमें यदि सार्थक अनुकरण होने पर प्रकृतिवद्भाव होता है और, निरर्थक अनुकरण होने पर प्रकृतिवद्भाव नहीं होता है । यहाँ 'विपराभ्यां जे:' (पा.सू. १/३/९१) में निरर्थक अनुकरण होने से 'जि' में धातुत्व का अभाव है, अतः 'इय्' आदेश नहीं होता है। इस बात का निषेध करते हुए श्री हरिभास्कर अपनी परिभाषावृत्ति में कहते हैं कि यह 'प्रकृतिवद्भाव' अतिदेश है और वह वैकल्पिक ही है, किन्तु 'क्रियः' में सार्थक अनुकरण है इस लिए धातुत्व का व्यपदेश होता है और 'जे:' में निरर्थक अनुकरण है इसलिए धातुत्व का अभाव होने से ‘इय्' आदेश नहीं होता है, ऐसी युक्ति विचारणीय है क्योंकि अनुकरण की अनुकार्य के साथ भेदाभेदविवक्षा होती है और उसी प्रकार से प्रातिपदिक संज्ञाभावाभाव का निश्चय आगे किया ही है। उसी प्रकार से यहाँ भी हो सकता है। जबकि शेषाद्रिनाथ तो इस परिभाषा (न्याय) को ही अनित्य मानते हैं । वे कहते है कि 'तत्रैव अधातुरिति पर्युदासाप्रवृतेः प्रातिपदिकसंज्ञामाश्रित्य विभिक्तिनिर्देशादनित्या चेयम् ।' ॥ ७ ॥ एकदेशविकृतमनन्यवत् ॥ शब्द के एक अंश में विकृति हो तो उसी शब्द को अन्यत्व प्राप्त नहीं होता है। शब्द के किसी एक अंश में वैसदृश्य होने पर उसीको/उस शब्द को अन्यत्व प्राप्त नहीं होता है अर्थात् उसे मूल शब्द से भिन्न नहीं माना जाता है किन्तु मूल शब्द सदृश मानकर मूल शब्द से जो कार्य होते हैं वे ही कार्य 'एकदेशविकृत' शब्द से भी होते हैं । साक्षात् लक्ष्य रूप जो शब्द है उसके वैसदृश्य को दूर करने के लिए यह न्याय है । उदा. 'अतीसारोऽस्यास्तीत्यतीसारकी' की तरह 'अतिसारोऽस्यास्तीत्यतिसारकी' में भी 'वातातीसारपिशाचात् कश्चान्तः' ७/२/६१ से 'मत्वर्थीय' 'इन्' प्रत्यय होगा और 'क' का आगम होगा । उसी प्रकार से, जैसे 'जरा' शब्द का 'टा' प्रत्यय पर में आने पर 'जरस्' आदेश होता है वैसे 'अतिजरसा कुलेन' में भी 'क्लीबे' २/४/९७ से ह्रस्व होने के बाद ‘अतिजर' शब्द में आये हुए 'जर' शब्द का भी 'जराया जरस्वा' २/१/३ सूत्र से जरस् आदेश होगा । यहाँ 'एकदेशविकृत' कहा है किन्तु उपलक्षण से कहीं कहीं 'अनेकदेशविकृत' भी 'अनन्यवत्' होता है, जैसे 'यमि-रमिनमि-गमि-हनि-मनि वनतितनादेधुटि क्ङिति'- ४/२/५५ से 'न्' का लोप करने के बाद ‘प्रणिहत' आदि में 'एकदेशविकृत' ही है, किन्तु 'प्रणिघ्नन्ति' आदि में 'गमहनजनखनघसः स्वरेऽनङि क्ङिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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