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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २) ॥२॥ सुसर्वार्द्धदिक्शब्देभ्यो जनपदस्य ॥ जिस के पूर्वपद में ( पूर्व में ) सु, सर्व, अर्द्ध या दिकशब्द हो और उत्तरपद में ( उत्तर में ) 'जनपदवाचि' शब्द हो तो, 'जनपदवाचि' शब्द से जो विधि होती वही विधि ऐसे शब्दों से भी होती है। जो शब्द दिशावाचक शब्द के रूप में प्रसिद्ध/प्रचलित/रूढ हो, वही शब्द अन्य अर्थ में प्रयुक्त होने पर भी दिशावाचक शब्द के साथ सादृश्य /समानरूपता, होने के कारण इसे 'दिक्शब्द' कहते हैं । किन्तु केवल 'दिक्' कहने से केवल दिशा अर्थ में ही प्रयुक्त शब्द लिया जाता है । ऐसा न हो किन्तु अन्य अर्थ में प्रयुक्त दिशावाचक शब्दों का संग्रह करने के लिए इसी न्याय में केवल 'दिक्' शब्द न देकर 'दिक्शब्द' का प्रयोग किया है । उदा. - 'प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्दबहिरारादितरैः' २/२/७५ । यदि केवल दिशा अर्थ में ही प्रयुक्त शब्द का संग्रह करना हो तो केवल 'दिश् (दिक्)', शब्द का ही प्रयोग किया होता । उदा. 'दिशो रूढ्यान्तराले' ३/१/२५. इसी न्याय का अर्थ इस प्रकार है -:'जनपदवाचि' शब्द से जो विधि बतायी है, वही विधि सु, सर्व, अर्द्ध और दिक्शब्द के साथ प्रयुक्त 'जनपदान्त' शब्द से भी होती है। [ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥१८॥२॥ न्याय का यह अपवाद है । इस प्रकार, अगला न्याय ऋतोर्वृद्धिमद्विधाववयवेभ्यः ॥३॥ भी ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥१८॥२॥ का अपवाद है।] उदा. 'मगधेषु भवो मागधिकः' आदि में जैसे अकञ् प्रत्यय होता है वैसे 'सुमगधेषु, सर्वमगधेषु, अर्धमगधेषु, पूर्वमगधेषु भवः सुमागधकः सर्वमागधकः अर्धमागधकः पूर्वमागधकः' आदि में भी 'सु, सर्व, अर्ध, दिक्शब्द' जिस के पूर्व पद में है, ऐसे 'जनपदान्तवाचि' शब्द से भी 'बहुविषयेभ्यः' ६/३/४५ सूत्र से 'अकञ्' प्रत्यय होता है। ___ 'सुमागधकः' आदि तीन शब्दों में 'सुसर्वार्धाद् राष्ट्रस्य' ७/४/१५ से और पूर्वमागधकः' शब्द में 'अमद्रस्य दिशः' ७/४/१६ से उत्तरपद के आद्यस्वर की वृद्धि होती है। ___'सु, सर्व, अर्ध, दिकशब्द' से पर आये हुए 'जनपदवाचि' शब्द से ही यह विधि होती है, ऐसा क्यों ? उपर्युक्त शब्द से भिन्न शब्द पूर्वपद में आने पर यह विधि नहीं होती है । उदा. ऋद्धमगधेषु भवः आर्धमगधः । यहाँ भवे' ६/३/१२३ सूत्र से 'अण्' प्रत्यय ही होता है। किन्तु 'बहुविषयेभ्यः' ६/३/४५ सूत्र से अकञ् प्रत्यय नहीं होता है क्योंकि 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' ॥१८॥ न्याय 'तदन्तविधि' का निषेध करता है। ___ 'सुसर्वाद्धार्दु राष्ट्रस्य' ७/४/१५ एवं 'अमद्रस्य दिश': ७/४/१६ सूत्र द्वारा उत्तरपद के आद्यस्वर की वृद्धि का विधान इस न्याय का ज्ञापक है । इसी सूत्र द्वारा/से उत्तरपद के आद्यस्वरकी वृद्धि, 'बहुविषयेभ्यः' ६/३/४५ आदि सूत्र द्वारा ‘सुमगध' आदि शब्द से 'जित्-णित्' प्रत्यय आने के बाद ही होती है । यदि वह 'जित्-णित्' प्रत्यय, 'सुमगध' आदि 'जनपदान्तवाचि' होने के कारण, 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' ॥१८॥ न्याय से न होते तो ये वृद्धि-सूत्र निर्विषयक हो जाते, अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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