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________________ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) नवा' ४/४/४५ सूत्र में, क्लिश्यति और क्लिश्नाति दोनों धातुओं का ग्रहण करने के लिए रखे बहुवचन को बताया है, वह भी उपयुक्त नहीं है क्योंकि 'स्वं रूपं शब्दस्य' न्यायांश होने पर भी, जिस तरह 'क्लिश्यति' और 'क्लिश्नाति' का ग्रहण होता है, इसी तरह यह न्यायांश न होने पर भी क्लिश्यति - क्लिश्नाति दोनों का ग्रहण हो सकता है क्योंकि इन्हीं दो धातुओं में से किसी एक का ग्रहण करने के लिए कोई निश्चायक नहीं है; अतः इन दोनों धातुओं का ग्रहण बहुवचन का प्रयोग न करने पर भी सिद्ध है तथा इस न्यायांश के ज्ञापक के रूप में बहुवचन के प्रयोग को बताना जरूरी नहीं है । किन्तु दिवादि गण में आया हुआ 'क्लिशिच् उपतापे' धातु इ कार अनुबन्ध सहित है, जबकि क्रयादि गण में आया हुआ 'क्लिशौश् विबाधने' धातु औकार अनुबन्ध सहित है, अत: यहाँ ‘क्लिशि' कहने से 'तदनुबन्धकग्रहणे नातदनुबन्धकस्य' (एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्य) न्याय से दिवादि गण निर्दिष्ट 'क्लिशिच् उपतापे' धातु का ग्रहण संभव है किन्तु 'क्लिशौश् विबाधने' धात का ग्रहण नहीं होता है। अतः उसका ग्रहण करने के लिए ही 'पङक्लिशिभ्यो नवा' ४/४/ ४५ सूत्र में बहुवचन का प्रयोग किया हो ऐसा मालूम देता है । आ. श्रीलावण्यसूरिजी, द्वितीय अंश की अनित्यता का स्वीकार करते नहीं है। उनका कहना है कि 'द्वितीय अंश की अनित्यता के कारण 'प्राज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र में 'दः' शब्द की अनुवृत्ति से 'दा' संज्ञक धातुओं का ग्रहण न करके, 'केवल दा रूप' धातुओं का ही ग्रहण किया है और इसी लिए वृत्ति में 'दारूपमेव ग्राह्यं' ऐसा स्पष्ट विधान किया है जो इसी न्यायांश की अनित्यता का ज्ञापन करता है।' श्रीहेमहंसगणि की यह बात उपयुक्त नहीं है क्योंकि ज्ञापक केवल अपनी सार्थकता के लिए नहीं होता है, किन्तु उसका फल अन्यत्र भी प्राप्त होता है । यहाँ जो ज्ञापक है वह केवल अपनी सार्थकता ही सिद्ध करता है किन्तु अन्यत्र इसका फल प्राप्त नहीं होता है । किन्तु 'ज्ञा' धातु के साहचर्य से ही 'दारूप' धातुओं का ग्रहण सिद्ध हो सकता है। - श्रीहेमहंसगणि, इसी न्याय के न्यास में इसी संभवित तर्क का प्रतिकार करते हुए बताते हैं कि यदि केवल 'ज्ञा' धातु के साहचर्य से ही 'दः' शब्द से 'दा' रूप धातुओं का ग्रहण होता तो 'गापास्थासादामाहाकः' ४/३/९६ सूत्रमें भी 'गा' - आदि धातुओं के साहचर्य से वहाँ भी केवल 'दा' रूप धातुओं का ही ग्रहण होगा किन्तु वहाँ 'दा' संज्ञक धातुओं का ग्रहण होता है । यदि यही न्यायांश नित्य होता तो साहचर्य से भी कोई फर्क नहीं पडता अर्थात् यदि 'अशब्दसंज्ञा' अंश नित्य होता तो 'ज्ञा' धातु का साहचर्य होने पर भी 'दः' शब्द से 'दा' संज्ञक धातुओं का ही ग्रहण होता। अतः 'दारूपमेव ग्राह्यं' ऐसा विधान यही न्यायांश की अनित्यता का ज्ञापक है । 'कातन्त्र' की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति में, भृतौ कर्मशब्दे' (का.४/३/२४ ) सूत्र में स्थित 'शब्द' शब्द को इसी न्याय का ज्ञापक बताया है । यदि इसी सूत्र में 'शब्द' शब्द को नहीं रखा गया होता तो, 'कर्म' रूप संज्ञा से निर्दिष्ट सभी शब्दों में इसी सूत्र की प्रवृत्ति होती । अर्थात् 'शब्द' शब्द से यही कर्मसंज्ञाभिन्न केवल कर्मशब्द में ही इसी सूत्र की प्रवृत्ति होती है । शाकटायन, चान्द्र और जैनन्द्र में यही न्याय परिभाषा के रूप संगृहीत हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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