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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.१) का प्रयोग क्यों करना चाहिए ? इसी न्याय का द्वितीय अंश भी अनित्य है, अतः 'प्राज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र में, पूर्व के। अगले 'दश्चाङः' ५/१/७८ सूत्र में आये हुए 'दा' शब्द की अनुवृत्ति है । इसी अनुवृत्त 'दः' पद से केवल 'दा' संज्ञक धातुओं का ही ग्रहण होता है किन्तु 'दा' संज्ञारहित 'दाव्' और 'दैव्' का ग्रहण नहीं होता है, तथापि 'प्राज्ज्ञश्च' ५/१/७९ सूत्र की वृत्ति में 'दा' शब्द से "केवल 'दा' रूप धातुओं का ग्रहण करना" ऐसी स्पष्टता की गई है, यही इसी न्याय के द्वितीय अंश 'अशब्दसंज्ञा' की अनित्यता का ज्ञापक है। इसी न्याय के बारे में विचार-विमर्श करते हुए आचार्य श्रीलावण्यसूरिजी ने 'स्वं रूपं शब्दस्य' खंड/विभाग के बारे में कहा है कि 'कल्यग्नेरेयण' ६/१/१७ सूत्र से होनेवाला 'एयण' प्रत्यय केवल 'अग्नि' शब्द से ही होगा किन्तु 'अग्नि' के पर्यायवाची 'वह्नि' आदि शब्दों से नहीं होगा। प्रो. के. वी. अभ्यंकर ने, इसी सूत्र की प्राचीन वृत्तियों के आधार पर बताया है कि व्याकरणशास्त्र में सर्वत्र प्रत्येक शब्द के अपने अक्षर रूप-स्वरूप का ही ग्रहण किया जाता है किन्तु उसी शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का ग्रहण नहीं होता है और जहाँ वह शब्द 'संज्ञा' के रूप में प्रयुक्त है, वहाँ, उसी संज्ञा से निर्दिष्ट सभी शब्दों का ग्रहण होता है । यहाँ भी उसी शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का ग्रहण नहीं होता है। पाणिनीय परंपरा में यह न्याय, सूत्र के रूप में कहा गया है और इसी सूत्र [ पा. १/१/ ६८ ]के महाभाष्य में महर्षि पतंजलि ने इसी न्याय/सूत्र की व्यर्थता प्रतिपादित की है। आचार्य श्रीलावण्यसूरिजी ने इसी न्याय के दोनों विभाग/अंश की अनित्यता का खंडन किया है। वे कहते हैं कि प्रथम अंश/खंड की अनित्यता का कोई फल नहीं है क्योंकि प्रथमांश को अनित्य मानने से शब्द के स्वरूप के साथ शब्द के अर्थ का भी ग्रहण होता है, अतः 'उत्स्वराधुजेरयज्ञतत्पात्रे' ३/३/२६ सूत्र में 'युजि' शब्द से 'युनक्ति' रूपवाले 'युज्' धातु और चुरादि गण समन्वित 'युज्' धातु का (णिच् के अभाव में) समान स्वरूपवाले हैं और अर्थ भी समान हैं, अतः 'युनक्ति' का ही ग्रहण होगा और चुरादि गण निर्दिष्ट युज्' धातु का ग्रहण नहीं होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता अर्थात् स्वरूप से और अर्थ से (दोनों रीति से) दोनों 'युज्' धातु का ही ग्रहण संभव है अतः चुरादि गण के युज् धातु के ग्रहण को रोकने के लिए सूत्र की वृत्ति या व्याख्या में स्पष्ट रूप से 'युनक्ति' रूप बता दिया है अर्थात् 'उत्स्वरायुजेरयज्ञतत्पात्रे' ३/३/२६ सूत्र में इसी न्याय के प्रथमांश की अनित्यता बतायी, वह उपयुक्त नहीं है । अतः उसके ज्ञापक के रूप में 'पूक्लिशिभ्यो 1. "Panini, in his rule स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा has laid down a definite principle, that as far as grammar rules are concerned words in Sätras are to be taken strictly as collections of letters in specific order and no attention is to be paid to their sense, except in the case of His words i.e. technical terms, where the words shown by the technical terms are to be taken, but, there too, no attention is to be paid to their sense."('परिभाषासंग्रह', Introduction, by Prof. K. V. Abhyankar, Pp. 14.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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