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. न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) अकृत्रिम अथवा स्वाभाविक ख्यांक् धातु से ड' प्रत्यय नहीं होता।
'उपसर्गादः किः' ५/३/८७ इत्यादि सूत्र में तो 'अवौ दाधौ दा' ३/३/५ सूत्र से की गई दा संज्ञावाले धातु ग्रहण किये हैं क्योंकि यहाँ 'दा' ऐसी संज्ञा का अस्तित्व है ही । अतः जैसे 'आदि' शब्द में दा रूप धातु होने से 'कि' प्रत्यय होता है वैसे 'आधि' शब्द में भी दा रूप न होने पर भी 'कि' प्रत्यय होगा।
___ 'स्वं रूपं शब्दस्य' भाग का ज्ञापक 'नदीभिर्नाम्नि' ३/१/२७ सूत्र में 'नदी' शब्द का बहुवचन में किया गया प्रयोग है । यदि 'नदी' शब्द का एकवचन में प्रयोग किया होता तो 'स्वं रूपं शब्दस्य' शब्दों से केवल 'नदी' शब्द का ही ग्रहण होता किन्तु नदीवाचक अन्य विशेषनाम जैसे गंगा, यमुना आदि का ग्रहण न होता, किन्तु वही इष्ट या अभिप्रेत या इच्छित नहीं है, अतः 'नदीभिः' रूप का प्रयोग किया है।
'सङ्ख्या समाहारे' ३/१/२८ सूत्र में ऊपर के 'नदीभिर्नाम्नि' ३/१/२७ सूत्र के 'नदीभिः' शब्द की अनुवृत्ति के कारण जैसे 'पञ्चानां नदीनां समाहारः पञ्चनदम्' में 'पञ्चन्' शब्दका 'नदी' शब्द के साथ 'अव्ययीभाव' समास हुआ है । वैसे 'द्वयोर्यमुनयोः समाहारो द्वियमुनम्, त्रिगङ्गम्, सप्तगोदावरम्' आदि में नदी विशेष नाम से भी अव्ययीभाव समास सिद्ध होगा, बाद में 'सङ्ख्याया नदीगोदावरीभ्याम् ७/३/९१ सूत्र से 'अत्' सामासान्त होगा, या 'क्लीबे' २/४/९७ सूत्र से हूस्व होगा और 'अमव्ययीभावस्यातोऽपञ्चम्या:' ३/२/२ सूत्र से 'स्यादि विभक्ति' का 'अम्' आदेश होगा।
'स्वरादुपसर्गाद्दस्तिकित्यधः' ४/४/९ सूत्र में जो 'धा' स्वरूप धातुओं का वर्जन किया है वह 'अशब्दसंज्ञा' खंड या विभाग का ज्ञापक है । यदि 'स्वं रूपं शब्दस्य' वचन से यहाँ केवल 'दा' रूप धातुओं का ही ग्रहण होता तो 'धा' रूप धातुओं के ग्रहण का प्रसंग ही प्राप्त नहीं हो सकता, तभी धा का वर्जन क्यों किया ? किन्तु 'अशब्दसंज्ञा' वचन से यहाँ 'धा' रूप धातुओं के ग्रहण का प्रसंग उपस्थित होता है, अतः इसी सूत्र में 'धा' रूप धातुओं का वर्जन किया, वह सफल है।
इसी न्याय का आद्य अंश 'स्वं रूपं शब्दस्य' अनित्य है, अतः 'उत्स्वरायुजेरयज्ञतत्पात्रे' ३/३/२६ सूत्र में 'युजि' शब्द से केवल रुधादि गण में आये हुए 'युज्' धातु का ही ग्रहण होगा, किन्तु चुरादि गण में समाविष्ट 'युज्' धातु का ग्रहण नहीं होता है क्योंकि यही 'युज्' धातु से 'युजादेर्नवा' ३/४/१८ सूत्र से 'णिच्' प्रत्यय विकल्प से होता है, अतः जब 'युज्' धातु से 'णिच्' नहीं होगा तब यही धातु का 'युजि' स्वरूप होता है । यह चुरादि गण समन्वित 'युज्' युजि स्वरूप होने पर भी इसका ग्रहण नहीं होता है।
'पूक्लिशिभ्यो नवा' ४/४/४५ सूत्र में रखा हुआ/निर्दिष्ट बहुवचन, इस प्रथम अंश की अनित्यता का ज्ञापक है। यहाँ बहुवचन रखने से 'क्लिश्नाति' और 'क्लिश्यति' दोनों धातुओं का ग्रहण किया जाता है। यदि इस न्याय का यह अंश नित्य ही होता तो बहुवचन के अलावा ही दोनों 'क्लिश्' धातु का ग्रहण 'क्लिशि' स्वरूप से होने की संभावना थी ही, तो इसके लिए बहुवचन
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