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________________ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण ) ८ ऐसे सूत्र बनाने की आवश्यकता ही नहीं थी किन्तु ऐसे सूत्र का अस्तित्व इस बात का ज्ञापक है कि 'सु, सर्व' आदि शब्द से युक्त 'जनपदान्तवाचि' अर्थात् राष्ट्रवाच्यन्त शब्द से 'अकञ्' आदि प्रत्यय करते समय, प्रस्तुत 'सुसर्वार्द्ध-' न्याय से 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः ॥ १८ ॥ न्याय बाधित होता है, अत: ऐसे शब्द से 'जित्- णित्' प्रत्यय निर्विघ्न आ सकते हैं इसी हेतु/भाव से इन वृद्धि सूत्रों की रचना की गई है। यह न्याय और इसके बाद का न्याय, ( दोनों न्याय) नित्य हैं अतः जहाँ-जहाँ उसकी प्राप्ति है वहाँ-वहाँ अवश्य इसका उपयोग होता है । यहाँ 'शोभना मगधाः सुमगधाः ' शब्द में 'सुः पूजायाम्' ३/१/४४ से तत्पुरुष समास होता है । 'सर्वे च ते मगधाः सर्वमगधाः' शब्द में 'पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलम्' ३/१/९७ से कर्मधारय समास, ‘मगधानामर्द्धम् अर्द्धमगधाः ' शब्द में 'समेंऽशेऽर्द्ध नवा' ३ / १ / ५४ से अंशितत्पुरुष समास, और 'पूर्वोऽशो मगधानाम् पूर्वमगधाः ' शब्द में 'पूर्वापराधरोत्तरमभिन्नेनांशिना' ३/१/५२ से अंशितत्पुरुष समास होगा तथा 'पूर्व' शब्द को दिशावाचि और अवयववाचि मानने पर 'पूर्वाश्च ते मगधाश्च' इस प्रकार विग्रह करने पर, 'दिगधिकं संज्ञातद्धितोत्तरपदे' ३ / ९ / ९८ सूत्र से तद्धितप्रत्यय के विषय में कर्मधारय समास होगा और जब इस प्रकार कर्मधारय समास होगा तब 'पूर्व' आदि शब्द मुख्यतया दिशा अर्थवाची होने पर भी उन दिशाओं में आये हुए प्रदेशवाची भी होने से, वे अवयववाचि कहे जायेंगे और अवयव का अवयवी में अभेद उपचार करने पर वह देशवाची भी कहा जाएगा और जब 'पूर्वस्यां मगधाः पूर्वमगधाः ' इस प्रकार समास होगा तब 'पूर्वा' शब्द केवल दिग्वाचि होगा और 'सर्वादयोऽस्यादौ' ३/२/६१ से 'पूर्वा' शब्द का पुंवद्भाव होगा तथा, 'तेषु भवः पूर्वमागधकः' होगा । इस प्रकार उपर्युक्त सब प्रयोग में 'पूर्व' शब्द को, इस न्याय की वृत्ति अनुसार 'दिक्शब्द ' कहा जाता है । वृत्तिकार 'दिक्शब्द' की व्याख्या इस प्रकार करते हैं । "जो शब्द पहले दिग्वाचि हो किन्तु प्रयोग में दिशा से भिन्न अर्थमें अर्थात् देश या काल अर्थ में प्रयुक्त हो, उसे 'दिक्शब्द' कहा जाता है । अतः यदि इस न्याय में केवल 'दिश्' शब्द का प्रयोग किया होता तो ऐसे देशवृत्ति या कालवृत्ति दिशावाचक शब्दों का संग्रह नहीं हो सकता, अतः इस न्याय में 'दिक्शब्द' शब्द रखा है । और आ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं ' प्रभृत्यन्यार्थदिक्शब्दबहिरारादितरै: ' २/२/७५ सूत्र की वृत्ति में ऐसा बताया है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'दिश्' शब्द से केवल दिशावाचि शब्दों का ही ग्रहण होता है, तो 'दिशो रूढ्यान्तराले ३/१/२५ में रूढि शब्द क्यों रखा है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुआ. श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने स्वयं, इसी सूत्र की बृहद्वृत्ति में बताया है कि 'रूढिग्रहणं यौगिकनिवृत्यर्थम् तेन ऐन्द्रयाश्च कौबेर्याश्च यदन्तरालम् इति वाक्यमेव' । संक्षेप में संस्कृत व्याकरण में तीन प्रकार के दिशावाचक शब्द हैं । १. 'दिक्शब्द' से जिस का ग्रहण होता है, जो पहले दिशावाचि था किन्तु प्रयोग में वह दिशावाचि न हो । २. केवलदिशावाचि शब्द, जो केवल दिशा अर्थ में ही प्रयुक्त होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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