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________________ [45] २१. हैमपरिभाषाएँ और जैनेन्द्रपरिभाषाएँ सामान्यतया जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत प्रायः ६, ७ व्याकरण इस समय प्राप्त हैं, उनमें केवल तीन व्याकरण ही मुख्य है । १. जैनेन्द्र, २. शाकटायन और ३. सिद्धहेम । उसमें जैनेन्द्र व्याकरण को सबसे प्राचीन माना जाता है । यद्यपि उसमें आये हुए कुछेक उदाहरणों या सूत्रों से ज्ञात होता है कि उससे पूर्व भी भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, श्रीदत्त इत्यादि के व्याकरण होंगे किन्तु इनका कोई व्याकरण सम्बन्धित ग्रन्थ हाल उपलब्ध नहीं है। इसी व्याकरण की रचना पाणिनीय व्याकरण के बाद हुई जान पड़ती है क्योंकि मूल व्याकरण में वार्तिक नहीं है, जो कात्यायन के वार्तिकों से मिलते-जुलते है, इसकी पूर्ति महावृत्ति के रचयिता आचार्य अभयनन्दी से पूर्व की गई है । महावृत्ति में कुछेक वार्तिकों का निष्प्रयोजनत्व बताया गया है । तथापि प्रो. के. वी. अभ्यंकररजी की मान्यतानुसार पूज्यपाद देवनन्दी के सूत्रों में कात्यायन के कुछेक वार्तिकों का भी समावेश होता है। पूज्यपाद देवनन्दी प्रणीत जैनेन्द्र व्याकरण और उसकी आचार्य अभयनन्दी कृत जैनेन्द्रमहावृत्ति के आधार पर प्रो. काशिनाथ वासदेव अभ्यंकर ने जैनेन्द्रपरिभाषावृत्तिं बनायी है। उसमें कुल मिलाकर १ गई है। जबकि पंडित शम्भुनाथ त्रिपाठी द्वारा सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा प्रकाशित जैनेन्द्र महावृत्ति के परिशिष्ट में अकारादि क्रम से दी गई परिभाषासूची में केवल ६७ परिभाषाएँ है। जैनेन्द्र परिभाषा के बारे में श्रीयुधिष्ठिर मीमांसक ने बताया है कि "आचार्य अभयनन्दि की महावृत्ति में अनेक परिभाषाएँ उद्धत है। कतिपय परिभाषाओं के ज्ञापक भी लिखे हैं । जैनेन्द्र सम्बन्धित परिभाषाओं के प्रवक्ता कौन है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । जैनेन्द्र परिभाषाओं की व्याख्या किसी प्राचीन ग्रन्थकार ने की थी, ऐसा अभयनन्दी के उल्लेख से लगता है । अभयनन्दी सूत्र १/१/९१ पर लिखते है कि 'सन्निपात परिभाषाया अनित्यतां वक्ष्यति ।' यहाँ 'वक्ष्यति' क्रिया का कर्ता कौन है, वह अज्ञात है, किन्तु इससे स्पष्ट है कि अभयनन्दी से पूर्व किसीने जैनेन्द्र परिभाषाओं की व्याख्या की थी।"71 . जैनेन्द्र महावृत्ति में पंडित शम्भुनाथजी ने परिभाषा सम्बन्धित कोई विशेष टिप्पणी नहीं की है या तो के कोई विभाग/प्रकार आदि भी नहीं बताया है। प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी, जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति की रचना का हेतु/कारण बताते हुए लिखते हैं कि प्रस्तुत संक्षिप्त परिभाषावृत्ति की रचना से जैनेन्द्र व्याकरण परम्परा की परिभाषा सम्बन्धित साहित्य की आवश्यकता की पूर्ति की गई है, जिसकी बहुत जरूरत थी। इसी परम्परा में परिभाषा सम्बन्धित कोई साहित्य या परिभाषासूची उपलब्ध नहीं है, जैसे पाणिनि, चान्द्र, कातंत्र और शाकटायन में है। प्रस्तुत परिभाषावृत्ति ईसा की छठ्ठी सदी में हुए देवनन्दि के जैनेन्द्र व्याकरण ऊपर ईसा की नवमीं सदी में हुए आचार्य अभयनन्दि प्रणीत जैनेन्द्र महावृत्ति के आधार पर बनायी गई है। यही महावृत्ति पाणिनीय परम्परा के वामन और जयादित्य द्वारा प्रणीत काशिकावृत्ति के समान ही है। इसी परिभाषावृत्ति में चार विभाग है। १. सूत्रार्थकरण, २. तदन्तविधि, ३. बाध, ४. प्रकीर्ण । प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने इस परिभाषावृत्ति के अन्त में जैनेन्द्र व्याकरण परम्परा की विशिष्ट संज्ञाएँ भी दी है, जिससे जैनेन्द्र व्याकरण और तत्सम्बन्धित परिभाषाओं को समझने में सरलता हो। 69. द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. १५, उगित्कार्य...पृ. २६, दाणश्च सा 70. द्रष्टव्य : परिभाषासंग्रह, Introduction, by Prof. K. V. Abhyankara, pp.24 द्रष्टव्य : 'जैनेन्द्रमहावृत्ति' में श्रीयधिष्ठिर मीमांसक का लेख 72. द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह' पृ. ८१ की टिप्पणी 73. द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह' Introduction, pp.25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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