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इसी परिभाषावृत्ति में यद्यपि कुछेक परिभाषाएँ ऐसी है, जिसका आ. अभयनन्दि ने साक्षात् उल्लेख नहीं किया है, तथापि उसके अनुसार व्यवहार तो किया ही है जैसे १ अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् ॥ इसी परिभाषा के अनुसार आनि [ जै. ५/४/ १०३ ] सूत्र में व्यवहार करते हुए कहा है- "अर्थवद्ग्रहण - परिभाषयाऽर्थवत एव नेर्ग्रहणादिह न भवति 175
'परिमाणग्रहणे न कालपरिमाणं गृह्यते' और 'पूर्वत्राऽसिद्धे नास्ति स्पर्धोऽसत्त्वादुत्तरस्य' परिभाषाओं का उल्लेख महावृत्ति में है तथापि पं. शम्भुनाथ त्रिपाठीकृत सूची में इनका स्थान नहीं है ।" जबकि 'मृद्ग्रहणे न तदन्तविधि:' ( मृद्=प्रातिपदिक-नाम) और 'व्यपदेशिवदेकस्मिन्' इन दोनों परिभाषाओं का 'सपूर्वात् ' [ जै. ४/ १ / २१ ] सूत्र से साक्षात् विधान किया गया है तथापि केवल 'व्यपदेशिवद्भावो न मृदा' परिभाषा ही सूची में दी गई है ।" "येन नाऽप्राप्ते तस्य तद्बाधनम्' परिभाषा महावृत्ति में होने पर भी प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने नहीं दी है 1*
कुछेक परिभाषाएँ ऐसी है जो सिद्धहेम और जैनेन्द्र दोनों में प्राप्त है तथापि पं. शम्भुनाथ त्रिपाठि व प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी, दोनों में से किसीने नहीं दी है । १. ऋतोर्जिद्विधाववयवेभ्यः ॥ २. ऋकारलृकारयोः स्वसंज्ञा वक्तव्या ॥ ३. अनुबन्धकृतमनेकाल्त्वम् ॥"
जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति की १०८ परिभाषा के खिलाफ 'न्यायसंग्रह' में १४१ परिभाषाएँ है । बहुत सी परिभाषाएँ ऐसी है, जो जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में है किन्तु 'न्यायसंग्रह' में नहीं है। इनकी सूची इस प्रकार है - १. कार्यकालं संज्ञापरिभाषम् ॥२॥, २. परिमाणग्रहणे न कालपरिमाणं गृह्यते ॥ ९ ॥, ३. अनुकरणशब्दा अनुकार्यशब्दैरर्थवन्तः ॥१२॥, ४. व्यपदेशिवदेकस्मिन् ॥१४॥ ५. धुग्रहणे ध्वादेः समुदायस्य ग्रहणम् ॥१९॥, ६. निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ॥२४॥, ७. अन्त्यविकारे अन्त्यसदेशस्य ॥२७॥ ८. निमित्तकार्यं न निमित्तस्य ॥२९॥, ९. उभयत आश्रयणे न तद्वद्भावः ॥३०॥, २०. नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम् ॥३५॥, ११. एकानुबन्धकृतमनित्यम् ॥३६॥, १२. नानर्थकेऽन्तेलोऽन्त्यविधिः ॥३८॥, १३. गुकार्ये निवृत्तिः पुनर्न तन्निमित्तम् ॥४१॥ १४. अवयवनाशिनामतः खं न भवति ॥४३॥, १५. णेऽप्यण्कृतं भवति ॥४४॥, १६. वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम् ॥ ४५ ॥ १७. पूर्वत्राऽसिद्धे न स्थानिवत् ॥४८॥, १८. स्फादिखलत्वणत्वेषु नास्ति ॥ ४९ ॥, १९. अतुल्यबलयोः स्पर्धो न भवति ॥६६॥, २०. पूर्वत्राऽसिद्धे नास्ति स्पर्थोऽसत्वादुत्तरस्य ॥६७॥, २१. न योगे योगेऽसिद्धोऽपि प्रकरणे प्रकरणमसिद्धं भवति ॥६८॥ २२. आभाच्छास्त्रस्य क्वचित् सिद्धता । ॥६९॥, २३. पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे ॥७०॥ २४. पुनः प्रसङ्गविज्ञानात् विधिः ॥७४॥ २५. अकृतवद्व्यूहेन सिद्धः ॥८८॥ २६. डलयोः समानविषयत्वं स्मर्यते ॥ १०७॥
प्रायः २५ से अधिक परिभाषाएँ ऐसी है, जो कुछ न कुछ रूप में सिद्धहेम परम्परा में प्राप्त है । कुछेक सप्ताध्यायी के सूत्र स्वरूप में है, तो कुछेक में थोडा सा परिवर्तन किया गया है । कुछेक नित्यत्व, बहिरङ्गत्व, अन्तरङ्गत्व इत्यादि की व्याख्या स्वरूप ही है, अतः इनको 'न्यायसंग्रह' में स्थान नहीं दिया है । लिङ्गानुशासन सम्बन्धित परिभाषाओं का भी 'न्यायसंग्रह' में संग्रह नहीं किया गया है ।
'न्यायसंग्रह' में प्राप्त किन्तु जैनेन्द्र महावृत्ति में अनुपलब्ध परिभाषाओं की सूची बहुत लम्बी होने जा रही है । उसकी संख्या शायद ७० से अधिक होगी। इसका मुख्य कारण यही है कि यह व्याकरण प्राचीन है और द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह' पृ. ८२
74.
75. द्रष्टव्य : 'जैनेन्द्रमहावृत्ति' पृ. ४१५ सूत्र ५ / ४ /१०३
76.
द्रष्टव्य : 'जैनेन्द्रमहावृत्ति' पृ. ३६२ सूत्र ५/२/२०
77.
द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. २४८, सूत्र ४ / २ / २१
78.
द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. ३६१, ३९२, सूत्र, ५/२/१५, ५/३/४१
79.
द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. १२, सूत्र १ / २ / ५२
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