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________________ [46] - इसी परिभाषावृत्ति में यद्यपि कुछेक परिभाषाएँ ऐसी है, जिसका आ. अभयनन्दि ने साक्षात् उल्लेख नहीं किया है, तथापि उसके अनुसार व्यवहार तो किया ही है जैसे १ अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ग्रहणम् ॥ इसी परिभाषा के अनुसार आनि [ जै. ५/४/ १०३ ] सूत्र में व्यवहार करते हुए कहा है- "अर्थवद्ग्रहण - परिभाषयाऽर्थवत एव नेर्ग्रहणादिह न भवति 175 'परिमाणग्रहणे न कालपरिमाणं गृह्यते' और 'पूर्वत्राऽसिद्धे नास्ति स्पर्धोऽसत्त्वादुत्तरस्य' परिभाषाओं का उल्लेख महावृत्ति में है तथापि पं. शम्भुनाथ त्रिपाठीकृत सूची में इनका स्थान नहीं है ।" जबकि 'मृद्ग्रहणे न तदन्तविधि:' ( मृद्=प्रातिपदिक-नाम) और 'व्यपदेशिवदेकस्मिन्' इन दोनों परिभाषाओं का 'सपूर्वात् ' [ जै. ४/ १ / २१ ] सूत्र से साक्षात् विधान किया गया है तथापि केवल 'व्यपदेशिवद्भावो न मृदा' परिभाषा ही सूची में दी गई है ।" "येन नाऽप्राप्ते तस्य तद्बाधनम्' परिभाषा महावृत्ति में होने पर भी प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने नहीं दी है 1* कुछेक परिभाषाएँ ऐसी है जो सिद्धहेम और जैनेन्द्र दोनों में प्राप्त है तथापि पं. शम्भुनाथ त्रिपाठि व प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी, दोनों में से किसीने नहीं दी है । १. ऋतोर्जिद्विधाववयवेभ्यः ॥ २. ऋकारलृकारयोः स्वसंज्ञा वक्तव्या ॥ ३. अनुबन्धकृतमनेकाल्त्वम् ॥" जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति की १०८ परिभाषा के खिलाफ 'न्यायसंग्रह' में १४१ परिभाषाएँ है । बहुत सी परिभाषाएँ ऐसी है, जो जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में है किन्तु 'न्यायसंग्रह' में नहीं है। इनकी सूची इस प्रकार है - १. कार्यकालं संज्ञापरिभाषम् ॥२॥, २. परिमाणग्रहणे न कालपरिमाणं गृह्यते ॥ ९ ॥, ३. अनुकरणशब्दा अनुकार्यशब्दैरर्थवन्तः ॥१२॥, ४. व्यपदेशिवदेकस्मिन् ॥१४॥ ५. धुग्रहणे ध्वादेः समुदायस्य ग्रहणम् ॥१९॥, ६. निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ॥२४॥, ७. अन्त्यविकारे अन्त्यसदेशस्य ॥२७॥ ८. निमित्तकार्यं न निमित्तस्य ॥२९॥, ९. उभयत आश्रयणे न तद्वद्भावः ॥३०॥, २०. नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम् ॥३५॥, ११. एकानुबन्धकृतमनित्यम् ॥३६॥, १२. नानर्थकेऽन्तेलोऽन्त्यविधिः ॥३८॥, १३. गुकार्ये निवृत्तिः पुनर्न तन्निमित्तम् ॥४१॥ १४. अवयवनाशिनामतः खं न भवति ॥४३॥, १५. णेऽप्यण्कृतं भवति ॥४४॥, १६. वर्णाश्रये नास्ति त्याश्रयम् ॥ ४५ ॥ १७. पूर्वत्राऽसिद्धे न स्थानिवत् ॥४८॥, १८. स्फादिखलत्वणत्वेषु नास्ति ॥ ४९ ॥, १९. अतुल्यबलयोः स्पर्धो न भवति ॥६६॥, २०. पूर्वत्राऽसिद्धे नास्ति स्पर्थोऽसत्वादुत्तरस्य ॥६७॥, २१. न योगे योगेऽसिद्धोऽपि प्रकरणे प्रकरणमसिद्धं भवति ॥६८॥ २२. आभाच्छास्त्रस्य क्वचित् सिद्धता । ॥६९॥, २३. पूर्वत्रासिद्धीयमद्वित्वे ॥७०॥ २४. पुनः प्रसङ्गविज्ञानात् विधिः ॥७४॥ २५. अकृतवद्व्यूहेन सिद्धः ॥८८॥ २६. डलयोः समानविषयत्वं स्मर्यते ॥ १०७॥ प्रायः २५ से अधिक परिभाषाएँ ऐसी है, जो कुछ न कुछ रूप में सिद्धहेम परम्परा में प्राप्त है । कुछेक सप्ताध्यायी के सूत्र स्वरूप में है, तो कुछेक में थोडा सा परिवर्तन किया गया है । कुछेक नित्यत्व, बहिरङ्गत्व, अन्तरङ्गत्व इत्यादि की व्याख्या स्वरूप ही है, अतः इनको 'न्यायसंग्रह' में स्थान नहीं दिया है । लिङ्गानुशासन सम्बन्धित परिभाषाओं का भी 'न्यायसंग्रह' में संग्रह नहीं किया गया है । 'न्यायसंग्रह' में प्राप्त किन्तु जैनेन्द्र महावृत्ति में अनुपलब्ध परिभाषाओं की सूची बहुत लम्बी होने जा रही है । उसकी संख्या शायद ७० से अधिक होगी। इसका मुख्य कारण यही है कि यह व्याकरण प्राचीन है और द्रष्टव्य : 'परिभाषासंग्रह' पृ. ८२ 74. 75. द्रष्टव्य : 'जैनेन्द्रमहावृत्ति' पृ. ४१५ सूत्र ५ / ४ /१०३ 76. द्रष्टव्य : 'जैनेन्द्रमहावृत्ति' पृ. ३६२ सूत्र ५/२/२० 77. द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. २४८, सूत्र ४ / २ / २१ 78. द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. ३६१, ३९२, सूत्र, ५/२/१५, ५/३/४१ 79. द्रष्टव्य : जैनेन्द्रमहावृत्ति पृ. १२, सूत्र १ / २ / ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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