SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [44] प्रो. अभ्यंकरजी की मान्यतानुसार इसी परिभाषा सूची का आधार प्राचीन वैयाकरण शाकटायन के ग्रन्थ हैं, जिसका महाभाष्य और यास्क के निरुक्त में उल्लेख किया गया है। उसके सबूत में उन्होंने 'विप्रतिषेध, अभ्यासविकार, वासरूप' और 'लुक' के स्थान पर प्रयुक्त 'स्पर्धे, द्विर्भाव, सरूप' और 'श्लुक' शब्दों को बताया गया है और उल्लेखनीय यह है कि व्याडिनिर्दिष्ट अकृतव्यहा: पाणिनीयाः' परिभाषा को 'अकृतव्यूहाः शाकटायनीयाः में बदल दी है। व्याडि के परिभाषासूचन की दो परिभाषाएँ - 'यं विधि प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते' ॥४८॥ और 'यस्य विधेनिमित्तं नासौ बाध्यते' ॥४९॥ को शाकटायन में एकत्र कर दिया है। असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' परिभाषा व्याडि के परिभाषासुचन में दो बार है और कुछेक परिभाषाओं में थोडा सा परिवर्तन किया गया है। शाकटायन की परिभाषासूची में व्याडि की जिन परिभाषाओं को छोड दी है, वे इस प्रकार है १. कृत्रिमाकृत्रिमयोरुभयगतिर्भवति ॥७॥, २. भाव्यमाणोऽण सवर्णान न गृह्णाति ॥३०॥, ३. उकार एवैको भाव्यमानोऽपि सवर्णान् न गृह्णति ॥३१॥, ४. अङ्गवृत्ते पुनर्वृत्तादधिनिष्ठितस्य ॥३४॥ ५. धातूपसर्गयोरन्तरङ्गं कार्यं भवति ॥३७॥, ६. एकानुबन्धकृतमनित्यम् ॥४५॥, ७. उदित् स्ववर्गमेव गृह्णाति न सवर्णमात्रम् ॥५५॥, ८. प्रकृतिग्रहणे णिजन्तस्यापि ग्रहणम् ।।७०॥९. सर्वो द्वन्द्वो विभाषयैकवद् भवति ॥७३॥, १०. नविकरणस्वरो लसार्वधातुकस्वरं बाधते ॥८४॥, ११. कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम् ॥८५॥. प्रो. अभ्यंकरजी ने बताया है कि व्याडि की १३ परिभाषाओं को शाकटायन परिभाषा में छोड दी है, किन्तु ऊपर बतायी हुई केवल ग्यारह परिभाषाओं को छोड दी है। उनमें से कृत्रिमाकृत्रिमयोरुभयगतिर्भवति ॥७॥ धातूपसर्गयोरन्तरङ्गं कार्यं भवति ॥३७॥, प्रकृतिग्रहणे णिजन्तस्यापि ॥७०॥ सर्वो द्वन्द्वो विभाषयैकवद् भवति ॥७३॥' और 'कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि' ॥९३॥ परिभाषाएँ ऐसी है, जिसकी प्रवृत्ति बहुत से वैयाकरणों ने की है तथापि उनका समावेश यहाँ शाकटायन परिभाषापाठ में नहीं किया गया है। जबकि अन्य छ: परिभाषाएँ केवल पाणिनीय व्याकरण की व्यवस्था के लिए ही आवश्यक होने से यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं है। ___ व्याडि के परिभाषासूचन और शाकटायन के परिभाषापाठ में बहुत सी परिभाषाएँ समान है और उसका क्रम भी समान है, अतः ऐसा अनुमान हो सकता है कि दोनों परिभाषाओं की रचना में बहुत कुछ काल का अन्तर नहीं है। शाकटायनपरिभाषाकार के सम्मुख व्याडि का 'परिभाषासूचन' होगा ही। शाकटायन परिभाषापाठ की कुल ९८ परिभाषाओं में से केवल ५३ परिभाषाएँ सिद्धहेम की परम्परा के 'न्यायसंग्रह' में है और बहुत सी परिभाषाओं का शब्दशः आचार्यश्री या श्रीहेमहंसगणि ने स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि उनमें से कुछेक परिभाषाएँ ऐसी भी है, जो केवल दोनों परम्परा की भिन्न संज्ञाओ के कारण ही भिन्न प्रतीत होती है । वे इस प्रकार हैं । १. नानुबन्धकृतमनेजन्तत्वम् ॥१५॥, २. श्लुग्विकरणाश्लुग्विकरणयोरश्लग्विकरणम् ॥४५॥ ३. तदनुबन्धग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ॥४९॥ ४. प्रकृतिग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ॥६३॥, ५. प्रातिपदिकविधौ प्रत्ययग्रहणे न तदन्तविधिः ॥७४॥ इत्यादि ।। प्रकृतिग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ॥६३॥ परिभाषा विचित्र है। यहाँ प्रकृति शब्द से नामरूप प्रकृति ली जाय या धातुरूप? नामस्वरूप प्रकृति नहीं ली जा सकती है क्योंकि 'प्रातिपपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि' परिभाषा दी गई है। यदि धातुरूप प्रकृति ली जाय तो, लिङ्ग शब्द से क्या लिया जाय? यही एक प्रश्न है । यदि लिङ्ग शब्द से स्वार्थिक प्रत्यय लिया जाय तो, सिद्धहैम में 'प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तानामपि ग्रहणम्' परिभाषा है ही। इस प्रकार सिद्धहेम में अप्राप्त परिभाषाओं के बारे में विशेष विचार किया जा सकता है । यहाँ केवल दिग्दर्शन ही किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy