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की टीका नहीं है किन्तु परिभाषा का एक स्वतंत्र ग्रंथ ही है किन्तु वर्तमान में अध्ययन-अध्यापन के लिए उसका कोई महत्त्व नहीं है ।
२०. व्याडिकृतपरिभाषासूचन, शाकटायन परिभाषाएँ और हैमपरिभाषाएँ
शाकटायन नामक दो वैयाकरण हो चूके हैं। एक पाणिनि से पूर्व और दूसरे पाणिनि के बाद । पाणिनिपूर्वकालीन शाकटायन जैन थे या नहीं, उसका कोई उत्तर नहीं है क्योंकि उनके द्वारा प्रणीत कोई भी ग्रन्थ हाल उपलब्ध नहीं है । केवल पाणिनिकृत अष्टाध्यायी में उसका अत्र तत्र कुछ उल्लेख प्राप्त होता है । जबकि पाणिनिपश्चात्कालीन शाकटायन का व्याकरण और उस पर अमोघवृत्ति नामक टीका प्राप्त होती है। यही शाकटायन जैन थे, उतना ही नहीं, किन्तु वे यापनीय तंत्र / संप्रदाय के आचार्य थे, जो वर्तमानकाल में लुप्त हो चुका है। यद्यपि उनका व्याकरण दिगम्बर सम्प्रदाय की अध्ययन परम्परा में मान्य है और उन पर कई दिगम्बर विद्वानों ने टीकाएँ भी लिखी है, तथापि उनके अन्य दो ग्रंथ केवलीभुक्ति प्रकरण और स्त्रीमुक्तिप्रकरण प्राप्त होते हैं और अमोघवृत्ति के कुछ उदाहरण से प्रतीत होता है कि श्वेताम्बरमान्य आगमपरम्परा उनको मान्य थी । इससे निश्चित होता है कि वैयाकरण शाकटायन वस्तुतः दिगम्बर सम्प्रदाय के थे ही नहीं। हां, यापनीय सम्प्रदाय की मूर्तियाँ नग्न रहती थी । ऐसी नग्नमूर्तियाँ पर के यापनीय सम्प्रदाय के आचार्य के नामसे युक्त लेख से ऐसी भ्रान्ति अवश्य हो सकती है कि यही सम्प्रदाय और दिगम्बर सम्प्रदाय एक ही होंगे।
वस्तुतः शाकटायन, उनका अपना नाम था और उनके द्वारा प्रणीत व्याकरणशास्त्र का भी नाम है। उनका अपना मूल नाम पाल्यकीर्ति था 165
शाकटायन व्याकरण की अमोघवृत्ति स्वयं सूत्रकार की बनायी हुई है और राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष को लक्ष्य करके उसका नाम अमोघवृत्ति रखा गया है क्योंकि दोनों समकालीन है और संभवतः अमोघवर्ष ने उसकी रचना में किसी प्रकार सहायता या प्रेरणा की होगी, जैसे कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी को सिद्धहेम की रचना में गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह ने की थी ।
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जैसे सिद्धम की परम्परा में परिभाषा के सम्बन्ध में स्वयं सूत्रकार द्वारा कोई साहित्य का निर्माण नहीं हुआ है, वैसे शाकटायन परम्परा में परिभाषासम्बन्धित कोई साहित्य का निर्माण नहीं हुआ है। यद्यपि 'परिभाषासंग्रह' में प्रो. के. वी. अभ्यंकरजीने शाकटायन परिभाषा की एक सूची दी है, तथापि यही सूची किसने बनायी है, किस ग्रन्थ के आधार पर बनायी है उसका कोई स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। इसके बारे में प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी ने 'परिभाषासंग्रह' की अंग्रेजी प्रस्तावना में बताते हैं कि यही 'शाकटायन परिभाषासूची' इन्डिया ओफिस लायब्रेरी से प्राप्त दो हस्तप्रतियाँ के आधार पर दी गई है और यह सूची सब से प्राचीन मालूम देती है। इसमें कुल मिलाकर ९८ परिभाषाएँ हैं । बहुत सी परिभाषाएँ व्याडि के परिभाषासूचन में प्राप्त है, केवल १८ परिभाषा इसमें ज्यादा है। जबकि व्याडि के परिभाषासूचन की १३ परिभाषाओं को इस सूची में स्थान नहीं दिया गया है। परिभाषाओं का क्रम शायद समान ही है ।
आगे चलकर प्रो. अभ्यंकरजी बताते हैं कि इसी सूची का आधार वर्तमान में उपलब्ध शाकटायन व्याकरण की अभयचन्द्र और यक्षवर्मा की वृत्तियाँ नहीं है। इसका रचनाकाल ईसा की नवमी सदी माना जाता है " पं. नाथुराम प्रेमीने अपने लेख 'शाकटायन और उनका शब्दानुशासन' में यक्षवर्माकृत 'चिन्तामणि' नामक लघीयसी वृत्ति का उल्लेख किया है, साथ साथ अभयचन्द्रकृत प्रक्रियासंग्रह' का भी निर्देश किया है M
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द्रष्टव्य: जैन साहित्य और इतिहास पू. ४४ पर (पं. नाथुराम प्रेमी) पृ. १५३. द्रष्टव्य जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४३ पर (प. नाथुराम प्रेमी) पृ. १५० 'परिभाषासंग्रह' Introduction by Prof. K. V. Abhyankar. pp. 16 'परिभाषासंग्रह' Introduction Prof. K. V. Abhyankara pp. 17 द्रष्टव्य जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४६ पर पं. नाथुराम प्रेमी
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