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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३६७ न्या.सि. -: किण्व का दूसरा अर्थ सुराबीज अर्थात् जिस में से मद्य बनता है वैसा बीज/धान्य । 'लत आदाने' ग्रहण करना, 'लतति' । 'आङ्' पूर्वक 'लत' धातु से उणादि के 'कृतिपुति'(उणा-७६ ) से कित् 'तिक' प्रत्यय होने पर आलत्तिका' शब्द गायन का प्रारम्भ अर्थ में होता है ॥३६॥ 'सात-सुखने', सुखी होना, 'सातति' । णिग् अन्तवाले 'सात' धातु से 'साहिसाति वेधुदेजि धारिपारिचेतेरनुपसर्गात्'-५/१/५९ से 'श' प्रत्यय होने पर 'सातयः' शब्द सुख करनेवाला अर्थ में होता है ॥३७॥ थ अन्तवाला 'कथ वाक्यप्रबन्धे' धातु वाक्यरचना करना अर्थ में है । 'णिग्' प्रत्यय होने पर या 'बहुलम्' से 'णिच्' विकल्प से होने पर अद्यतनी में 'अचीकथत्' रूप होता है । उदा. 'भूरिदाक्षिण्यसंपन्न यत्त्वं सान्त्वमचीकथ:'( महाभारत ). जबकि चुरादि ‘कथण्' धातु अकारान्त होने से 'अचकथत्' रूप होता है ॥३८॥ द अन्तवाले चार धातु हैं । १. 'उद आघाते' आघात लगना, 'ओदति' । उणादि के 'कुटिकुलि'-( उणा-१२३) से कित् ‘इञ्च' प्रत्यय होने पर 'उदिञ्च' शब्द वाद्य-विशेष अर्थ में होता है ॥३९॥ 'क्षद हिंसासंवरणयोः' धातु हिंसा करना और ढाँकना अर्थ में है। क्षदति' । उणादि के 'ट्'(उणा-४४६) सूत्र से 'त्रट' प्रत्यय होने पर 'क्षत्रम्' और उससे 'तस्यापत्यं' अर्थ में 'क्षत्रादियः' ६/१/९३ से 'इय' प्रत्यय होने पर 'क्षत्रियः' शब्द होगा और 'त्वष्टक्षत्तृ'-( उणा - ८६५) से 'तृ' प्रत्यय होने पर 'क्षत्ता' दौवारिक अर्थात् द्वारपाल अर्थ में होता है ॥४०॥ स्वो. न्या. : 'आ आदौ लभ्यते आदीयते गृह्यते इति यावद् नानार्थिभिः इति आलत्तिका ।' गीत गाने की इच्छावाले प्रारंभ में जिसको ग्रहण करते हैं, वह 'आलत्तिका' अर्थात् (संगीतशास्त्र में) आलाप कहा जाता है । 'सातयति, सुखं करोति इति सातयः' जो सुखी करें वह 'सातयः' । 'उद्यते, आहन्यते तूर्यमनेन इति 'उदिञ्चः' । जिसके द्वारा वाद्य/वाजिंत्र को बजाया जाय वह उदिञ्चः। 'क्षदति हन्ति शत्रु इति क्षत्रम्' शत्रु को हननेवाला क्षत्रम् 'क्षदति संवृणोति द्वारं इति क्षत्ता', द्वार को बंद करें वह क्षत्ता । . न्या. सि. : उपसर्ग रहित ‘लत' धातु से 'तिक' प्रत्यय होने पर 'लत्तिका' शब्द वाद्य-विशेष अर्थ में होता है। यदि वह 'गो' शब्दपूर्वक हो तो 'गोलत्तिका' का अर्थ गृहगोधा अर्थात् छिपकली होता है और 'अवलत्तिका' का अर्थ गोधा-घो होता है। क्षत्ता शब्द के अन्य अर्थ 'नियुक्तः, अविनीतः, मुसलः, पारशवः, रुद्रः' और 'सारथिः' होता है। 'सुन्द हिंसासौन्दर्ययोः' (हिंसा करना और सुंदर होना ) 'सुन्दति' । 'अच्' प्रत्यय होने पर 'सुन्द' और 'उपसुन्द' । उसी नाम से दो दैत्य/दानव थे, जो परस्पर युद्ध में मारे गये थे' उणादि के 'ऋच्छिचटि-' ( उणा-३९७ ) से 'अर' प्रत्यय होने पर 'सुन्दर' शब्द बनता है ॥४९॥ 'कदि वैक्लव्यछेदनयोः' विकलता और छेदना अर्थ में है । 'कदते' । 'अनट्' प्रत्यय होने १. क्षतात् किल वायत इत्युदग्रः, क्षत्रस्य शब्द: भुवनेषु रूढः ।। (रघुवंश, सर्ग-२) २. शब्द के अनित्यत्व के बारे में नैयायिक 'सुन्दोपसुन्द' न्याय की प्रवृत्ति करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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